‘बांकेलाल सीरीज़’ राज कॉमिक्स के हास्य जॉनर की रीढ़ रही है, जो एक ऐसे ‘एंटी-हीरो’ की कहानी है जो विशालगढ़ का राजा बनने के लिए अपने राजा विक्रमसिंह को मारने के नित नए, चालाक लेकिन अजीब-गरीब प्लान बनाता रहता है; लेकिन उसकी ‘फूटी किस्मत’ और राजा विक्रमसिंह के ‘जबर्दस्त पुण्य’ की वजह से बांकेलाल की हर कोशिश फेल हो जाती है। ज़्यादातर तो वह खुद ही अपनी चाल में फँस जाता है या फिर अनजाने में राजा का भला कर देता है। आज हम जिस कॉमिक्स की समीक्षा करने जा रहे हैं, वह है बांकेलाल सीरीज़ की ‘सालगिरह‘ (संख्या 756), जो इसी क्लासिक फॉर्मूले का बेहतरीन उदाहरण है। कहानी तरुण कुमार वाही ने लिखी है, चित्र बेदी ने बनाए हैं, और हास्य सलाहकार के रूप में संजय गुप्ता और संजय सक्सेना की अनुभवी जोड़ी मौजूद है। यह टीम भारतीय कॉमिक्स की दुनिया में कुछ सबसे मज़ेदार पल बनाने के लिए जानी जाती है, और ‘सालगिरह’ भी ऐसी ही कॉमिक्स है जो शुरू से अंत तक आपको हँसा-हँसाकर लोटपोट कर देगी।
कथानक का विस्तृत विश्लेषण: एक जश्न जो हंगामे में बदल गया
कॉमिक्स की शुरुआत ही एक बेहद मज़ेदार सीन से होती है। विशालगढ़ के महाराजा विक्रमसिंह और महारानी स्वर्णलता अपनी शादी की सालगिरह की सुबह-सुबह अपने कक्ष से बाहर निकलते हैं। बाहर निकलते ही प्रजा और मंत्री उन पर फूल बरसाने लगते हैं और बधाइयाँ देते हैं। और यहीं बांकेलाल अपनी पहली चाल के साथ मैदान में उतर जाता है।
गुलदस्ते का ‘भारी‘ तोहफा

बांकेलाल एक बहुत बड़ा, लगभग एक इंसान जितना भारी गुलदस्ता लेकर आता है और राजा को भेंट करता है। उसका असली इरादा होता है कि इस भारी गुलदस्ते के नीचे दबकर राजा की जान चली जाए। लेकिन हर बार की तरह इस बार भी ऊंट उल्टी करवट बैठता है। राजा विक्रमसिंह, जो अपनी ‘आलूबोरे जैसी देह’ के लिए मशहूर हैं, गुलदस्ते को संभाल नहीं पाते और महारानी सहित उसी के नीचे दब जाते हैं। बांकेलाल भी दिखावा करता हुआ उन्हें बचाने कूदता है और खुद भी उसी ढेर के नीचे चिपक जाता है। यह शुरुआती दृश्य ही कॉमिक्स का टोन सेट कर देता है—बांकेलाल की खुराफात और उसका मज़ेदार तरीके से फेल हो जाना। किसी तरह सब बाहर निकलते हैं, और तभी राजकुमार मोहकसिंह अपनी माता को ‘एड़ी वाली चप्पलें’ भेंट करता है, जिसे देखकर बांकेलाल अंदर ही अंदर जलता है।
‘चटोरा चाट भण्डार‘ का प्रस्थान
सालगिरह के इस मौके पर जब राजा विक्रमसिंह यह सोचते हैं कि महारानी को क्या तोहफा दिया जाए, तो बांकेलाल तुरंत उन्हें उकसाता है। और फिर महारानी झट से बोल देती हैं कि उन्हें ‘चटोरा चाट भण्डार’ जाकर गोलगप्पे और पापड़ी चाट खानी है। राजा, जो खुद भी खाने के शौकीन हैं, तुरंत तैयार हो जाते हैं। बांकेलाल भी ये सोचकर खुश होता है कि बाहर जाकर राजा को मारना आसान रहेगा (और शायद उसे पैसे भी न देने पड़ें), इसलिए वो इस प्लान का पूरा समर्थन करता है।
फिर शुरू होती है शाही सवारी। दो रथों में मंत्री, सेनापति, राजा, रानी, राजकुमार और बांकेलाल ठसाठस भरकर ‘चटोरा चाट भण्डार’ की तरफ निकलते हैं। यह यात्रा अपने आप में एक मजेदार सीन है—मंत्री एक-दूसरे पर गिरते हुए, और बांकेलाल ‘गोलगप्पे की जय’ के नारे लगाता हुआ आगे बढ़ता है।
साधु घोरानन्द का आगमन और श्राप

चाट की दुकान पर पहुँचते ही असली हंगामा शुरू हो जाता है। राजा और सारे मंत्री गोलगप्पे देखने भर की देर होती है, सब टूट पड़ते हैं। बांकेलाल यहाँ भी अपनी नई चाल आज़माता है। वह चुपके से चाट वाले (चटोरा) के पास जाकर ‘सूं सूं सूं’ करके इशारा करता है कि राजा के गोलगप्पों के पानी में खूब तेज़ मिर्च डाल दे, ताकि राजा ‘सी-सी’ करता रह जाए और शायद मर ही पड़े।
इसी बीच, जब राजा विक्रमसिंह मज़े से गोलगप्पे खा रहे होते हैं, तभी एक साधु ‘घोरानन्द’ भिक्षा माँगने पहुँच जाता है। लेकिन राजा खाने में इतने मस्त होते हैं कि वे साधु को डाँटकर भगा देते हैं। बस फिर क्या था! बांकेलाल को मौका मिल जाता है। वह साधु का मज़ाक उड़ाना शुरू कर देता है। वह नाचते-गाते अंदाज़ में कहता है—“मधुबन में राधिका नाची थीऽऽ और हम नाचे बिन घुंघरू केऽऽ”—और जब साधु की धोती खुल जाती है, तब भी वह उसे चिढ़ाना नहीं छोड़ता।
गुस्से से तमतमाया साधु घोरानन्द राजा विक्रमसिंह को श्राप दे देता है कि अब उस पर और उसके पूरे खानदान पर आदमखोर गिद्धों का हमला होगा, जो उन्हें नोच-नोचकर खा जाएँगे।
अपहरण और रोमांच का तड़का
श्राप मिलते ही आसमान से अचानक बहुत बड़े और डरावने गिद्धों का झुंड उतर आता है। इन गिद्धों के साथ एक भयंकर ‘चमगादड़-चुड़ैल’ भी होती है, जो बिल्कुल डरावने चमगादड़ जैसी दिखती है। वह सीधे राजकुमार मोहकसिंह को पकड़ लेती है और उड़ जाती है। अब कॉमिक्स की कहानी ‘स्लैपस्टिक कॉमेडी’ से बदलकर ‘कॉमेडी-एडवेंचर’ में तब्दील हो जाती है।
राजा विक्रमसिंह और उनकी सेना तुरन्त उस चुड़ैल के पीछे लग जाते हैं। बांकेलाल भी साथ-दिखाई देता है, लेकिन उसके दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा है। वह सोचता है—राजकुमार तो गया ही गया, अब अगर राजा भी उसे बचाने के चक्कर में गिद्धों का शिकार बन जाए, तो विशालगढ़ का सिंहासन आखिरकार उसी का होगा।
नरभक्षी कबीला और क्लाइमेक्स
चुड़ैल, राजकुमार को उठाकर एक ‘नरभक्षी कबीले’ के ठिकाने पर पहुँचती है। वहाँ साधु घोरानन्द पहले से मौजूद होता है। वे लोग राजकुमार की बलि देने की तैयारी कर रहे होते हैं। तभी राजा विक्रमसिंह और उनकी सेना पहुँच जाती है। गिद्धों का झुंड सेना पर टूट पड़ता है और दोनों तरफ से ज़बरदस्त लड़ाई शुरू हो जाती है।
बांकेलाल का ‘एक्सीडेंटल’ हीरोइज्म

युद्ध के बीच बांकेलाल एक बार फिर राजा को मारने की योजना बनाता है। वह देखता है कि रानी स्वर्णलता के पास एक जादुई तलवार है। वह रानी को उकसाता है कि वह उस चुड़ैल पर तलवार फेंक दे। उसका असली प्लान ये होता है कि रानी से निशाना चूकेगा और तलवार सीधे राजा विक्रमसिंह के ‘आर-पार’ हो जाएगी।
महारानी तलवार फेंकती हैं, लेकिन तलवार चुड़ैल को लगने के बजाय पास ही के एक पेड़ में धँस जाती है। उसी वक्त, बांकेलाल का घोड़ा—जो गिद्धों के हमले से बिदक गया था—तेज़ रफ़्तार से उसी पेड़ की तरफ भागता है। बांकेलाल घोड़े से उछलकर हवा में उड़ता हुआ पेड़ की ओर जाता है और तलवार की मूठ पर गिरने के बजाय सीधे उस ‘चमगादड़-चुड़ैल’ के ऊपर ही जा गिरता है। बांकेलाल के ‘भारी’ शरीर के वज़न से चुड़ैल बेहोश हो जाती है।
पर्दाफाश और हास्यास्पद अंत
चुड़ैल के गिरते ही सारे गिद्ध अचानक गायब हो जाते हैं। साधु घोरानन्द और उसका ‘नरभक्षी कबीला’ (जो असल में उसके ही चेले थे) पकड़ लिए जाते हैं। तभी असली सच सामने आता है—साधु घोरानन्द कोई चमत्कारी बाबा नहीं था, बल्कि एक ढोंगी था। वह श्राप-व्राप कुछ नहीं दे सकता था। ये सारे गिद्ध और चुड़ैल (जो उसकी चेली थी) सब सिर्फ ट्रेन किए हुए थे, ताकि राजा को डराकर उससे धन ऐंठा जा सके।
राजा विक्रमसिंह एक बार फिर बांकेलाल की वजह से (भले अनजाने में सही) बच जाते हैं। बांकेलाल अपनी किस्मत को कोसता रह जाता है। और कॉमिक्स का अंत तो सबसे मजेदार है—राजा विक्रमसिंह बांकेलाल को आदेश देते हैं कि क्योंकि वह शाही खजाने का मंत्री है, इसलिए ‘चटोरा चाट भण्डार’ का पूरा बिल वही भरेगा। पैसे बचाने के चक्कर में पड़े बांकेलाल का वहीं चेहरा देखने लायक हो जाता है, और वह सिर पकड़कर बैठ जाता है।
हास्य के महारथी
बांकेलाल: इस कॉमिक्स में बांकेलाल पूरे फॉर्म में है। वह चालाक है, कंजूस है, और राजा को हटाने के लिए हर बार कोई न कोई तिकड़म लगा देता है। लेकिन किस्मत हमेशा उसके खिलाफ रहती है। उसका ‘ही ही ही’ और ‘हो हो हो’ करने का अंदाज़, और मन ही मन बड़बड़ाना—ये सब पढ़कर मजा ही आ जाता है।

राजा विक्रमसिंह: राजा विक्रमसिंह भोलेपन और ‘पुण्य’ का चलता-फिरता उदाहरण हैं। उन्हें खाना-पीना बहुत पसंद है और अपनी प्रजा (बांकेलाल को छोड़कर) से खूब प्यार करते हैं। साधु को अनजाने में डाँटना और फिर बांकेलाल के “गलती से” किए गए हीरोइज्म से बच जाना—ये सब उनके किरदार को बेहद मजेदार बनाता है।
घोरानन्द: साधु घोरानन्द एक क्लासिक बांकेलाल-विलेन है। वह असली शक्तिशाली नहीं है, बस एक ढोंगी है जो लोगों को डराने के लिए नाटक और दिखावा करता है। उसका गुस्सा, और फिर अंत में उसका पूरा भंडाफोड़—कहानी में एक अलग ही मजा जोड़ता है।
कला और चित्रांकन (आर्टवर्क)
कलाकार बेदी का काम लाजवाब है। उन्होंने बांकेलाल सीरीज़ की पहचान बनने वाली स्टाइल को न सिर्फ संभाला, बल्कि और भी बढ़िया बना दिया है। कॉमिक्स की जान है—पात्रों के एक्सप्रेशन। बेदी ने बांकेलाल की कुटिल मुस्कान, राजा का भोला चेहरा, घोरानन्द का नकली गुस्सा, और महारानी की घबराहट सब बहुत खूबसूरती से उतारा है।
गिद्धों के हमले और चुड़ैल के उड़ने वाले सीन काफी ज़िंदादिल और रोमांचक बने हैं। और तो और, चित्रांकन ने कहानी के जोक्स को और भी मजेदार बना दिया है। कॉमेडी टाइमिंग इतनी बढ़िया है कि चाट की दुकान पर की भगदड़ या साधु की धोती का खुल जाना—ये सब सीन पढ़कर खुद-ब-खुद हँसी निकल जाती है।
हास्य, संवाद और लेखक का कौशल
तरुण कुमार वाही ने इस कॉमिक्स के लिए एक जोरदार और मजेदार पटकथा लिखी है। इसके संवाद तो मानो इसकी जान हैं। जहाँ एक तरफ गुलदस्ते के नीचे दबना, घोड़े से हवा में उछल जाना, और चाट की लाइन में धक्का-मुक्की जैसी चीज़ें पूरी स्लैपस्टिक कॉमेडी देती हैं, वहीं बांकेलाल के वन-लाइनर और उसका अंदर ही अंदर का एकालाप कहानी को और मजेदार बना देते हैं।
“मधुबन में राधिका नाची थी…” जैसे उसके बेतुके संवाद पढ़कर हँसी रुकती नहीं।
कॉमिक्स की एक और बड़ी खूबी है इसकी विडंबना—बांकेलाल राजा को मारने जो भी प्लान बनाता है, वही प्लान आखिरकार राजा की जान बचा देता है।
संजय गुप्ता और संजय सक्सेना के ‘हास्य सलाहकार’ के रूप में योगदान साफ दिखता है—हर पैनल में कोई ना कोई पंच है और हर पन्ने पर नया मजाक।
निष्कर्ष: एक ‘क्लासिक‘ बांकेलाल एडवेंचर
‘सालगिरह’ सिर्फ एक कॉमिक्स नहीं, बल्कि बांकेलाल के असली मजे का एक उत्सव है। यह बताता है कि क्यों बांकेलाल राज कॉमिक्स का हमेशा से पसंदीदा किरदार रहा है। इस कॉमिक्स में हास्य, रोमांच और पक्की पटकथा का शानदार मिश्रण है।
90 के दशक में कॉमिक्स पढ़ने वालों के लिए यह एक ‘नॉस्टैल्जिया ट्रिप’ है, और नए पाठकों के लिए बांकेलाल की दुनिया में कदम रखने का परफेक्ट मौका।
कुल मिलाकर, ‘सालगिरह’ एक ‘मस्ट-रीड’ कॉमिक्स है। यह ऐसी सालगिरह है जिसे विशालगढ़ का राजा तो शायद भूलना चाहेगा, लेकिन राज कॉमिक्स के फैन कभी नहीं भूलेंगे। अगर आप शुद्ध, मजेदार और दिल खोलकर हँसाने वाले हास्य की तलाश में हैं, तो ‘सालगिरह’ बिल्कुल आपके लिए बनी है।

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