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Home » कूबड़ा – Manoj Chitrakatha Review | 90’s की तीन दमदार कहानियाँ: Hunchback, Time Gun और Yeh Hai Nasha
Editor's Picks Updated:30 November 2025

कूबड़ा – Manoj Chitrakatha Review | 90’s की तीन दमदार कहानियाँ: Hunchback, Time Gun और Yeh Hai Nasha

90’s Manoj Comics की जादुई, रहस्यमयी और साइ-फाई दुनिया का एक अनोखा सफर—जहाँ लालच का अंजाम, टाइम ट्रैवल की सज़ा और देसी शराब से बचे एलियन अटैक जैसी कहानियाँ आपका इंतज़ार कर रही हैं।
ComicsBioBy ComicsBio29 November 2025Updated:30 November 2025010 Mins Read
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Hunger – Manoj Chitrakatha Review | Hunchback, Time Gun & Nasha Explained
90’s Manoj Comics की तीन धमाकेदार कहानियों वाला क्लासिक अंक—जहाँ जादू, साइ-फाई, लालच, विडंबना और डार्क कॉमेडी एक ही जगह मिलती हैं।
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90 के दशक में भारतीय कॉमिक्स जगत में ‘मनोज चित्रकथा’ का एक खास और अलग ही स्थान था। जहाँ राज कॉमिक्स अपने सुपरहीरो (नागराज, डोगा) जैसी कहानियों के लिए मशहूर थी, वहीं मनोज कॉमिक्स अपनी सामाजिक, जादुई, डरावनी और रहस्यमयी (थ्रिलर/मिस्ट्री) कहानियों की वजह से लोगों की पसंद बनी रहती थी। कॉमिक्स “कुबड़ा” भी ऐसी ही कहानियों में से एक बेहतरीन उदाहरण है। यह कॉमिक्स एक संकलन (Anthology) है, जिसमें तीन अलग-अलग कहानियाँ शामिल हैं: “कुबड़ा”, “टाइम गन” और “यह है नशा”। इसका कवर पेज ही पढ़ने वालों में सिहरन पैदा कर देता है—टीवी स्क्रीन से एक आदमी बाहर गिर रहा है और स्क्रीन पर एक शैतानी चेहरा जोर से हंस रहा है।

आइए, इन तीनों कहानियों को एक-एक करके विस्तार से समझते हैं।

कहानी 1: कुबड़ा (मुख्य कथा)

यह इस कॉमिक्स की मुख्य और सबसे असरदार कहानी है। पूरी कहानी इंसान के सबसे गहरे अवगुण—लालच (Greed)—पर सीधा वार करती है।

कथानक (Plot):
कहानी का मुख्य किरदार एक शारीरिक रूप से कमजोर और झुके हुए कद वाला आदमी है, जिसे लोग ताने मारते हुए “कुबड़ा” कहकर बुलाते हैं। वह बहुत गरीब है, चिड़चिड़ा है और समाज की अलग-अलग तकलीफें झेलते-झेलते टूटा हुआ है। वह पीपल के पेड़ पर चढ़ाए गए प्रसाद को खाकर अपना गुज़ारा करता है। एक दिन उसे उसी पेड़ के नीचे एक पुराना टीवी मिलता है, जिसे वह उठाकर अपने घर ले आता है। और यहीं से कहानी में एक रहस्यमयी और अलौकिक मोड़ शुरू होता है।

कुबड़े को पता चलता है कि यह टीवी कोई साधारण टीवी नहीं है। इस टीवी के अंदर एक अलग ही दुनिया बसी हुई है और वहां एक अजीब सा आदमी (जो यहाँ एक जादुई सत्ता जैसा दिखाया गया है) मौजूद है। टीवी के अंदर रहने वाला वह आदमी कुबड़े को एक ऑफर देता है—
“तुम मुझे बाहर से खाना और कपड़े दोगे, और बदले में मैं तुम्हें उसकी कीमत से 100 गुना ज्यादा सोना दूँगा।”

कुबड़ा टीवी के अंदर की उस दुनिया में जाता है, जहाँ चारों तरफ सोना-चांदी का ढेर लगा हुआ है। वह बाहर से सस्ता खाना और फटे-पुराने कपड़े ले जाता है और बदले में भारी-भरकम जेवर और कीमती सामान लेकर लौट आता है। धीरे-धीरे वही गरीब कुबड़ा शहर का सबसे अमीर आदमी “सेठ कुबड़ादास” बन जाता है। अब उसके पास बड़ा बंगला है, गाड़ियाँ हैं, और नौकर-चाकर तक हैं।

क्लाइमेक्स और त्रासदी

कहानी का अंत दिल को हिलाकर रख देने वाला है। अमीर बनने के बाद कुबड़े का लालच और ज्यादा बढ़ जाता है। उसे एक जमीन लेने के लिए तुरंत 15 लाख रुपये चाहिए होते हैं। वह फिर टीवी के अंदर जाता है और उस जादुई आदमी पर दबाव डालता है कि चाहे वह खाना-कपड़ा कम लाया है, फिर भी उसे 15 लाख रुपये दे दे।

लेकिन वह जादुई आदमी अपनी शर्त पर अड़ा रहता है—“100 गुना कीमत” से ज्यादा नहीं।
गुस्से में अंधा हो चुका कुबड़ा कुदाल से उसकी हत्या कर देता है, ताकि वह सारा खजाना अपने कब्जे में कर सके।

वह खजाने वाला संदूक लेकर टीवी से बाहर निकलने की कोशिश करता है, लेकिन अब टीवी की स्क्रीन एक मजबूत दीवार जैसी बन चुकी है। उधर, बाहर कुबड़े का बेटा पप्पू क्रिकेट खेल रहा होता है। उसकी गेंद टीवी की स्क्रीन पर लगती है और स्क्रीन टूट जाती है। स्क्रीन टूटते ही टीवी के अंदर और बाहर की दुनिया का रिश्ता हमेशा के लिए टूट जाता है।

कुबड़ा उस दूसरी दुनिया (Dimensional Void) में सोने के बड़े ढेर के पास अकेला फँस जाता है। वह चिल्लाता है, मदद मांगता है, लेकिन कोई उसे सुन नहीं पाता। अंत में वही आदमी, जिसने सारी जिंदगी गरीबी झेली थी और फिर लालच में अंधा हो गया था… उसी सोने के ढेर के पास भूख और प्यास से तड़पकर मर जाता है।

विश्लेषण:

लेखक टीकाराम सिप्पी ने बहुत ही खूबसूरती से दिखाया है कि कैसे पैसा इंसान की सोच और उसका पूरा नजरिया बदल देता है। शुरुआत में कुबड़ा एक ऐसा इंसान था जो खुद पीड़ा झेल रहा था, और उसे देखकर हमारे मन में उसके लिए सहानुभूति पैदा होती है। लेकिन जैसे ही उसके पास पैसा आया, उसका व्यवहार बदल गया—वह क्रूर, जिद्दी और घमंडी बन गया।
टीवी स्क्रीन का टूटना सिर्फ एक घटना नहीं है, बल्कि एक गहरा संकेत है—कुबड़े का लालच ही उसकी बर्बादी बन गया। सोने के ढेर के पास भूख से मरना यह बताता है कि जिंदगी में असली मायने पैसे के नहीं, बल्कि खाने, आज़ादी और इंसानियत के हैं।

कहानी 2: टाइम गन (Time Gun)

दूसरी कहानी विज्ञान कथा (Sci-Fi) पर आधारित है, और इसमें भविष्य और भूतकाल दोनों को एक दिलचस्प तरीके से जोड़ा गया है।

कथानक:
कहानी का नायक शागान है, जो बंबई का एक अमीर आदमी है, लेकिन अंदर से वह अपने अतीत को लेकर बहुत परेशान रहता है। एक दिन वह एक लड़की से टकराता है, उसे अपने घर लाता है और उससे उम्मीद करता है कि वह उसकी जीवनसंगिनी बनेगी। वह लड़की को अपना सच्चा राज बताता है।

शागान असल में 20वीं सदी का व्यक्ति है ही नहीं। वह लाखों साल आगे के भविष्य का इंसान है। उस समय तक इंसानों ने असाधारण तरक्की कर ली होती है, लेकिन उस दुनिया में भावनाओं की कोई जगह नहीं है। पूरी धरती पर “सुप्रीमो” नाम का एक सुपर कंप्यूटर शासन करता है।
शागान और उसके साथी (मकी, कीफ) ने सुप्रीमो के खिलाफ बगावत की थी, लेकिन वे हार गए। सज़ा के तौर पर सुप्रीमो ने शागान को टाइम मशीन से 20वीं सदी में भेज दिया—एक ऐसा युग जिसे उनके समय में लगभग पाषाण युग जैसा माना जाता है, लेकिन जहाँ भावनाएँ अब भी जिंदा थीं।
यहीं भावनाएँ और आज़ादी पाकर शागान खुश था।

ट्विस्ट (The Twist):

कहानी में सबसे बड़ा झटका तब आता है जब वह लड़की, जिसे शागान पत्नी बनाना चाहता था, अपना असली रूप दिखाती है। वह भी भविष्य से भेजी गई है और सुप्रीमो की एजेंट है। वह बताती है कि सुप्रीमो को अपनी गलती समझ आ गई—शागान को 20वीं सदी में भेजकर उसे सज़ा नहीं, बल्कि आराम मिल गया था।
इसलिए अब उसकी नई सज़ा तय की गई है।

वह लड़की एक “टाइम गन” निकालती है और शागान को गोली मार देती है। इस गन की किरणें शागान को 20वीं सदी से हटाकर सीधे “पाषाण युग” (Stone Age) में पहुँचा देती हैं—जहाँ डायनासोर, जंगली जानवर और खतरनाक वातावरण है।
शागान का सुखद सपना यहीं टूट जाता है और उसे अपनी असली अंतिम सज़ा मिल जाती है।

विश्लेषण:
यह कहानी ‘टर्मिनेटर’ और ‘1984’ जैसी डिस्टोपियन कहानियों का असर लिए हुए लगती है। लेखक अंसार अख्तर ने “इंसान बनाम मशीन” का संघर्ष बड़ी ही दिलचस्प तरीके से दिखाया है।
कहानी यह भी समझाती है कि इंसान चाहे जितना भी भागने की कोशिश करे, वह अपने अतीत या अपने किए हुए गलत कामों से नहीं बच सकता।
मुकेश ‘बिट्टू’ का आर्टवर्क भविष्य की दुनिया, मशीनों और रोबोट्स को दिखाने में काफी प्रभावशाली रहा है।

कहानी 3: यह है नशा (Yeh Hai Nasha)

तीसरी कहानी एक हल्की-फुल्की लेकिन तंज भरी (satirical) विज्ञान कथा है, जो पढ़ने में मजेदार लगती है लेकिन आखिर में एक गहरा संदेश छोड़ती है।

कथानक:
एक एयर ट्रैफिक कंट्रोल रूम में अचानक अफरा-तफरी मच जाती है, जब एक अजीब और बहुत बड़ा विमान लैंडिंग की अनुमति मांगता है। यह विमान किसी दूसरी दुनिया से आया हुआ लगता है, लेकिन पायलट इंसानी भाषा में बात करता है।
विमान का ईंधन खत्म हो गया है, और वे मांग करते हैं—“अनाज का अल्कोहल” (Grain Alcohol) चाहिये।

कमांडरों को समझ नहीं आता कि यह कैसा विमान है जो पेट्रोल की जगह शराब मांग रहा है। वे जल्दी-जल्दी अल्कोहल का इंतजाम करने के लिए कारपोरल रवि सिंह को भेजते हैं। रवि सिंह खुद भी शराबी किस्म का आदमी है। वह सोचता है कि अल्कोहल तो बस अल्कोहल होता है—फिर चाहे वह देसी हो, सस्ती हो या रिफाइंड। वह रास्ते में एक देसी ठेके से सस्ती और मिलावटी शराब खरीद लेता है और थोड़ी खुद भी पी लेता है।

विमान में यह शराब भर दी जाती है। विमान उड़ान भरता है। अंदर बैठे एलियंस (जोंडा और फोंडा) अपनी असली शक्ल में आ जाते हैं। उनका इरादा शायद धरती पर हमला करना या जासूसी करना था। लेकिन जैसे ही वे अंतरिक्ष में पहुँचते हैं, उनका जहाज लड़खड़ाने लगता है। देसी और खराब शराब के कारण जहाज का इंजन जैसे “नशे” में चूर हो जाता है और कंट्रोल से बाहर हो जाता है। नतीजा यह होता है कि एलियंस अंतरिक्ष में हमेशा के लिए भटकने पर मजबूर हो जाते हैं।

अंत:

धरती पर कमांडरों को चेतावनी मिलती है कि वह एक UFO था, लेकिन वे इसे मजाक की तरह लेते हैं और कहते हैं कि “दिल्ली वाले मजाक कर रहे हैं।” उन्हें यह बात समझ ही नहीं आती कि शराबी रवि सिंह की एक छोटी-सी गलती (सस्ती शराब ला देना) ने अनजाने में ही धरती को एक बड़े एलियन खतरे से बचा लिया।

विश्लेषण:

यह कहानी ‘नशा’ जैसे गंभीर विषय को मजाकिया और विडंबनापूर्ण अंदाज में दिखाती है। आमतौर पर नशा बर्बादी लाता है, लेकिन यहाँ रवि सिंह के नशे और खराब शराब ने एलियंस की बर्बादी कर दी। यह एक तरह की ‘डार्क कॉमेडी’ है।

समग्र समीक्षा (Overall Review)

सकारात्मक पक्ष (Positives):
कहानियों में विविधता: इस एक ही कॉमिक्स में आपको जादू (Fantasy), भविष्य का विज्ञान (Sci-Fi) और कॉमेडी—तीनों का मजा मिलता है। यही मनोज कॉमिक्स की खासियत थी कि वे एक ही अंक में पूरा “पैसा वसूल” मनोरंजन देते थे।
नैतिक शिक्षा: ‘कुबड़ा’ कहानी साफ तौर पर सिखाती है कि “अति सर्वत्र वर्जयेत”—यानी किसी चीज़ की ज्यादा चाहत या लालच हमेशा नुकसान पहुँचाता है। यह बात बच्चों और बड़ों दोनों के लिए सीखने लायक है।
तेज गति (Pacing): तीनों कहानियाँ बहुत ही टाइट और तेज रफ्तार में आगे बढ़ती हैं। कहीं भी कहानी ढीली या उबाऊ नहीं लगती।
चित्रण (Artwork): नरेश कुमार और मुकेश का आर्टवर्क 90 के दशक की कॉमिक्स शैली का शानदार उदाहरण है। कुबड़े के हाव-भाव, भविष्य के रोबोट्स और एलियन जहाज—सबका चित्रांकन कहानी के मूड के अनुरूप है। रंगों का इस्तेमाल (खासकर कुबड़ा वाली कहानी में सोने की चमक और अंधेरे का फर्क) भी काफी प्रभावशाली है।

नकारात्मक पक्ष (Negatives):
तकनीकी खामियाँ: ‘यह है नशा’ कहानी में विज्ञान का तर्क थोड़ा कमजोर लगता है। अल्कोहल से चलने वाला स्पेसशिप थोड़ा बचकाना आइडिया लगता है, लेकिन चूँकि यह कॉमिक्स है, इसलिए इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता।
संवाद: कई जगह संवाद बहुत फिल्मी और पुराने जमाने जैसे लगते हैं (जैसे “स्वीट हार्ट” का बार-बार इस्तेमाल)।
कुबड़ा की क्रूरता: कुबड़ा का गुस्सैल स्वभाव शुरू से ही बहुत तेज दिखाया गया है। अगर उसे पहले थोड़ा नरम दिल या सीधा-सादा दिखाया जाता, और बाद में पैसा मिलते ही उसका स्वभाव बदलता, तो उसका पतन और भी ज्यादा असरदार लगता।

निष्कर्ष:

मनोज चित्रकथा की “कुबड़ा” एक ऐसी क्लासिक कॉमिक्स है जिसे आज भी पढ़ना मजेदार है। यह सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, बल्कि आपको सोचने पर मजबूर कर देती है।

क्या कुबड़ा अपनी किस्मत खुद लिख रहा था?
क्या भविष्य की मशीनें (जैसे सुप्रीमो) एक दिन इंसानों की दुश्मन बन जाएंगी?
कैसे कभी-कभी छोटी गलतियाँ (जैसे गलत शराब) बड़े खतरों को टाल देती हैं?

अगर आप 90 के दशक के कॉमिक्स पढ़कर बड़े हुए हैं, तो यह कॉमिक्स आपके लिए ढेर सारी यादें वापस ले आएगी। और नई पीढ़ी के लिए यह एक ऐसी झलक है कि उस समय बिना सुपरहीरोज़ के भी सिर्फ मजबूत कहानियों के दम पर पाठकों को कैसे बांधकर रखा जाता था।

रेटिंग: 4/5 (कहानी की पकड़ और अंत के ट्विस्ट के लिए)।

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