राज कॉमिक्स की ‘बार्न इन ब्लड’ (Born in Blood) श्रृंखला भारतीय कॉमिक्स के इतिहास में एक खास जगह रखती है। यह वह दौर था जब डोगा के किरदार को एक नए तरीके से गढ़ा जा रहा था—उसे पहले से ज्यादा खतरनाक, ज्यादा हकीकत के करीब और दिमागी तौर पर और गहरा बनाया जा रहा था। इसी श्रृंखला में संजय गुप्ता और तरुण कुमार वाही की लिखी और स्टूडियो इमेज द्वारा बनाई गई कॉमिक्स “भूखा डोगा” (भाग-2) एक शानदार कड़ी है। यह कहानी “निकल पड़ा डोगा” की घटनाओं को आगे बढ़ाती है और पाठकों को सीधा “सो जा डोगा” की तरफ ले जाती है।
कॉमिक्स का नाम “भूखा डोगा” पहली नजर में किसी पेट की भूख जैसा लगता है, लेकिन जैसे-जैसे आप पन्ने पलटते हैं, आपको समझ आता है कि यहां भूख का मतलब कई तरह की भूख से है। यह भूख सिर्फ खाने की नहीं, बल्कि न्याय की भूख, अपराधियों को खत्म करने की भूख, और समाज में फैली गंदगी को मिटाने की भूख है। मुंबई के अपराध जगत में जिसे यमदूत माना जाता है, वह डोगा यहां सच में एक घायल और भूखे शेर की तरह दिखाई देता है।
यह कॉमिक्स सिर्फ एक्शन और थ्रिल तक सीमित नहीं है, बल्कि डोगा के अतीत (सूरज) के पुराने, गहरे जख्मों को भी छूती है—ऐसे जख्म जो कभी भरे ही नहीं। अनाथालयों की हालत, भीख मंगवाने वाले गैंग की बेरहमी और बच्चों के अपहरण जैसे बड़े सामाजिक मुद्दों को इस कहानी ने अपने बीचों-बीच रखा है।
कथानक (Storyline): अतीत और वर्तमान का संगम
कहानी की शुरुआत एक बहुत ही भावुक और बेचैन कर देने वाले फ्लैशबैक से होती है। हम छोटे सूरज (यानी डोगा के बचपन) को देखते हैं—अनाथ, अकेला और भूख से तड़पता हुआ। हलकान सिंह के कूड़ाघर में उसे एक “कीड़ा” समझकर पाला जाता था। फ्लैशबैक में दिखता है कि कैसे एक दयालु बूढ़ा आदमी (जिन्हें सूरज अपने लिए एक फरिश्ता मानता है) सूरज और सड़क के कुत्तों को अपने पास जगह देता है और भरपेट खाना खिलाता है। लेकिन उनके साथ बिताए खुशी के पल ज्यादा देर नहीं टिकते। ‘बैसाखी दादा’ नाम का एक बेरहम भिखारी माफिया उस बूढ़े आदमी की हत्या कर देता है और सूरज को मारपीट कर भीख मंगवाने के धंधे में झोंक देता है।

यही वह मोड़ है जहाँ डोगा की असली नींव रखी जाती है। जब बैसाखी दादा सूरज के कुत्ता दोस्तों को मारने की कोशिश करता है, तो सूरज के अंदर का ‘जानवर’ पहली बार जागता है। वह बैसाखी दादा पर टूट पड़ता है। यह पल साफ दिखाता है कि डोगा जन्म से हत्यारा नहीं था—हालात ने उसे ऐसा बनाया।
वर्तमान घटनाक्रम:
अब कहानी वापस वर्तमान में लौटती है, जहाँ डोगा मुंबई की रातों में ‘शिकार’ पर निकला है। उसका टारगेट है—भिखारी गैंग। वह ‘लंगड़ा उस्ताद’ और उसके गुर्गों पर सीधे-सीधे कहर बनकर टूटता है। डोगा का तरीका एकदम साफ है—वह अपराधियों को सिर्फ पकड़ता नहीं, उन्हें तोड़ देता है। उसकी ‘बोन ब्रेकर’ (Bone Breaker) तकनीक से हड्डियाँ टूटने के दृश्य रोंगटे खड़े कर देते हैं।
डोगा को शक है कि मुंबई से गायब हुए 30 बच्चों (जिसका जिक्र पिछले भाग “निकल पड़ा डोगा” में था) के पीछे भी यही भिखारी गैंग है। वह चार बच्चों को छुड़ाता भी है, लेकिन बाद में उसे समझ आता है कि उसने गलती कर दी—ये वो बच्चे नहीं थे जिनकी उसे खोज थी। यह बात डोगा की इंसानियत और उसकी सीमाओं दोनों को दिखाती है—वह सब कुछ जानने वाला सुपरहीरो नहीं है, वह भी गलत हो सकता है।
जांच और रहस्य:
कहानी का दूसरा हिस्सा एक तरह का ‘व्होडनिट’ (Whodunit) रहस्य बन जाता है। डोगा अपने हाई-टेक लैब ‘डोगालिसियस विंग’ में चीता (उसका पार्टनर) के साथ सुरागों पर काम करता है। दोनों की नजर ‘राघवन’ नाम के उस आदमी पर जाती है, जो आर.के. ठक्कर की कोठी में नौकर था और जिसके बारे में कहा गया था कि उसने आत्महत्या कर ली। लेकिन डोगा को शक होता है कि राघवन असल में अपराधी नहीं था, बल्कि एक महत्वपूर्ण गवाह था।

जब डोगा कोठी नंबर 13 (ठक्कर का घर) की तलाशी लेता है तो उसे वहां कई अजीब चीजें दिखती हैं—किचन में ताजा बनी कॉफी, कई बंद दरवाजे और आखिर में एक छुपा हुआ तहखाना। तहखाने में उसे दो बच्चे (हर्ष और विद्या) मिलते हैं। बच्चों से पता चलता है कि राघवन ने उन्हें किडनैपर्स से बचाने के लिए वहां छिपाया था और खुद बलिदान दे दिया था।
कहानी का सबसे बड़ा मोड़ (Twist) तब आता है जब डोगा फॉरेंसिक सबूतों से यह साफ साबित करता है कि राघवन ने आत्महत्या नहीं की थी—उसकी हत्या हुई थी। तरीके से साफ है कि यह काम किसी प्रोफेशनल किलर का था। डोगा का शक कोठी के मालिक ‘आर.के. ठक्कर’ पर जाता है।
क्लाइमेक्स:
कहानी का अंत बहुत तेजी से आगे बढ़ता है। डोगा ठक्कर को पकड़ने पहुंचता है, लेकिन वहां उसे ठक्कर की लाश मिलती है। कोई और है जो पूरे खेल को पीछे से चला रहा है। असली अपराधी अभी भी पर्दे के पीछे है। डोगा की टक्कर एक नए दुश्मन से होती है, जो उसे बेहोश भी कर देता है। कहानी एक सस्पेंस पर खत्म होती है, जहाँ डोगा की मुलाकात लोमड़ी (एक और किरदार) से होती है—यह दृश्य अगले भाग ‘सो जा डोगा’ के लिए उत्सुकता बढ़ा देता है।
पात्र विश्लेषण (Character Analysis)
डोगा (सूरज):
इस कॉमिक्स में डोगा का दोहरा चेहरा बहुत खूबसूरती से सामने आता है। एक तरफ वह ‘सूरज’ है—जो बच्चों का दर्द समझता है, जिम में अपना गुस्सा निकालता है और मोनिका के प्यार को इसलिए ठुकराता रहता है क्योंकि उसे लगता है कि उसकी जिंदगी सिर्फ मिशन के लिए है। दूसरी तरफ वह ‘डोगा’ है—जो दया का मतलब भूल चुका है।

पेज 9 और 10 पर जब वह अपराधियों को सजा देता है, तो उसकी आंखों में साफ पागलपन दिखता है। वह कहता है, “रोटी सबसे बड़ा खजाना होती है लंगड़े उस्ताद!” यह लाइन उसके बचपन की भूख और आज के गुस्से—दोनों को जोड़ देती है।
चीता:
चीता डोगा का टेक एक्सपर्ट है। वही कंप्यूटर पर डेटा चेक करता है और डोगा को सही दिशा देता है। दोनों की बॉन्डिंग बैटमैन और अल्फ्रेड/ओरेकल जैसी लगती है, लेकिन देसी तड़के के साथ। चीता हमेशा डोगा के गुस्से को तर्क (Logic) से बैलेंस करता है।
मोनिका:
मोनिका इस खून-खराबे वाली कहानी में थोड़ा सॉफ्टनेस लाती है। वह सूरज की मेंटल स्टेट को लेकर सच में परेशान रहती है। उसे पता है कि सूरज कई रातों से सोया नहीं है। उसका संवाद—“जागकर गुजारी गई हर एक रात दिमाग में सनसनाहट पैदा कर देती है सूरज”—इस बात की तरफ इशारा है कि डोगा मानसिक रूप से टूट रहा है।

साइको:
साइको कहानी में थोड़ा ‘सुपरनैचुरल’ टच जोड़ता है। वह किसी भी बच्चे की ‘ओरा’ (Aura) देखकर बता सकता है कि वह जिंदा है या नहीं। साइको की ये क्षमता कहानी को साइंस की सीमा से बाहर ले जाती है, जो राज कॉमिक्स की फैंटेसी दुनिया की खासियत है।
खलनायक (लंगड़ा उस्ताद और असली विलेन):
लंगड़ा उस्ताद एक टिपिकल गुंडा है, जिसे डोगा आसानी से हरा देता है। लेकिन असली विलेन, जो अंत तक सामने नहीं आता, उससे कहीं ज्यादा चालाक और खतरनाक है। वह हर मोड़ पर डोगा से एक कदम आगे निकल जाता है—और यही चीज कहानी का तनाव (Tension) बनाए रखती है।
चित्रांकन और कला (Artwork & Visuals)
‘बॉर्न इन ब्लड’ सीरीज़ की यूएसपी उसका स्टूडियो इमेज द्वारा बनाया गया शानदार आर्टवर्क है। आर्ट में ज्यादा गहरे रंग (Dark Shades)—काला, नीला, बैंगनी और लाल—का इस्तेमाल किया गया है, जो कहानी का ‘नोयर’ और थोड़ा उदास (Gloomy) सा माहौल तुरंत सेट कर देता है। खून का लाल रंग तो पन्नों पर खास तौर पर उभरकर आता है।
एक्शन सीन बेहद दमदार और मूवमेंट से भरे हुए हैं। डोगा के फाइट सीक्वेंस में ‘इम्पैक्ट’ साफ महसूस होता है, खासकर ‘बोन ब्रेकर’ वाले सीन में—जहां हड्डियों का टूटना और अपराधियों के चेहरों पर दर्द का एक्सप्रेशन इतने विस्तार (Detail) से बनाया गया है कि पढ़ते समय झटका लगता है।
चेहरों की अभिव्यक्ति (Facial Expressions) शानदार हैं—सूरज के तनाव, गुस्से और थकान को बेहद साफ दिखाया गया है। वहीं नन्हे सूरज की मासूमियत से लेकर उसके चेहरे पर आने वाली कठोरता तक का फर्क भी बहुत खूबसूरती से दिखता है।
लोकेशन्स भी बारीकी से बनाई गई हैं—गटर, अंधेरी कोठियां, हाई-टेक लैब—सब मिलकर माहौल (Atmosphere) को और मजबूत बनाते हैं। खासकर बारिश और रात के दृश्यों में लाइटिंग इफेक्ट्स बहुत जबरदस्त लगे हैं।
संवाद और लेखन (Dialogue & Script)
संजय गुप्ता और तरुण कुमार वाही की जोड़ी ने एक दमदार और टाइट स्क्रिप्ट लिखी है। कहानी कहीं भी ढीली नहीं पड़ती—हर पन्ने पर कुछ न कुछ ऐसा होता है जो पाठक को आगे पढ़ने पर मजबूर करता है।

संवादों में वजन भी है और तड़का भी। कुछ यादगार लाइनें जैसे—
- “जब दर-ब-दर हो जाता है कोई, तब उसे एहसास होता है कि वो अनाथ है।”
- “जिसमें छन-छन आने-जाने रहमदिल लोग भीख डालते जा रहे थे।”
- “मैं तुम्हारे लिए रोटी लाया हूँ… लेकिन डोगा तुम भी हमारे साथ रोटी खाओ ना?” (इससे बच्चों की मासूमियत और डोगा का पिघलना दोनों झलकते हैं।)
- “यह आत्महत्या का नहीं डोगा, सीधा-साधा हत्या का केस है!”
लेखकों ने मेडिकल और फॉरेंसिक जानकारी का भी कमाल का इस्तेमाल किया है—जैसे ‘कलाई की नस काटने का तरीका’, जिसमें ‘Hesitation Marks’ और ‘Deep Cut’ का फर्क बताया गया है। इससे कहानी सिर्फ मारधाड़ तक सीमित नहीं रहती, बल्कि एक समझदार और सोचने वाली जासूसी कहानी बन जाती है।
सामाजिक सरोकार और संदेश
“भूखा डोगा” सिर्फ मनोरंजन नहीं है—यह एक समाजआईना भी है।
बाल अपराध और भिक्षावृत्ति:
कॉमिक्स दिखाती है कि कैसे छोटे-छोटे बच्चों को अगवा कर उन्हें अपंग बना दिया जाता है और भीख मांगने पर मजबूर किया जाता है। यह बड़े शहरों की कड़वी हकीकत है।
भ्रष्टाचार और पुलिस की नाकामी:
डोगा का अस्तित्व ही बताता है कि पुलिस कहाँ कम पड़ रही है। जहां पुलिस सबूत ढूंढती रह जाती है, वहां डोगा सीधे न्याय कर देता है। हालांकि यह ‘विजिलांटे जस्टिस’ के नैतिक पहलुओं पर भी सवाल खड़े करता है।
अमीरी और गरीबी:
कहानी में अमीर बच्चों (जैसे आर.के. ठक्कर के लोग) और गरीब बच्चों (भीख मांगने वाले) का फर्क साफ दिखाया गया है। डोगा उन गरीब बच्चों के लिए एक रक्षक की तरह सामने आता है।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण (Critical Analysis)
‘बॉर्न इन ब्लड’ एक बहुत अच्छी कॉमिक्स है, लेकिन कुछ जगहों पर और सुधार की गुंजाइश है। सबसे पहले, इसमें हिंसा थोड़ी ज्यादा है—हड्डियां टूटना, नसें कटना और खून-खराबा कुछ पाठकों को परेशान कर सकता है, हालांकि इसका टारगेट ऑडियंस वैसे भी मेच्योर रीडर्स हैं।
दूसरा, कुछ जगहों पर सस्पेंस दोहराया सा लगता है—जैसे डोगा का कोठी में घुस जाना या तहखाना ढूंढ लेना काफी आसानी से हो जाता है, जिससे लगता है कि उसके लिए कई मुश्किलें थोड़ी कम कर दी गई हैं।

अंत में, कहानी जिस बड़ी दिलचस्प मोड़ पर खत्म होती है, वो अगले भाग के लिए एक्साइटमेंट तो बनाती है, लेकिन जो पाठक सिर्फ यही एक भाग पढ़ रहे हैं, उन्हें थोड़ी निराशा हो सकती है क्योंकि बच्चों के गायब होने का असली राज अभी भी अनसुलझा रहता है।
निष्कर्ष (Conclusion)
“भूखा डोगा” राज कॉमिक्स के स्वर्ण युग का एक ऐसा चमकदार सितारा है, जो सिर्फ कहानी नहीं बल्कि एक तजुर्बा बनकर उभरता है। यह कॉमिक्स डोगा के चरित्र को एक नई ऊँचाई देती है—जहाँ भावनाएँ हैं, रहस्य है और जबरदस्त एक्शन तो जैसे इसके DNA में ही बसा है।
यह कहानी साफ-साफ बताती है कि डोगा सिर्फ एक मास्क नहीं, बल्कि वह गुस्सा है जो हर उस आम इंसान में उबलता है जो रोज़-रोज़ अन्याय देखता रहता है। सूरज का अपनी नींद, आराम और अपने डर तक को छोड़कर उन बच्चों को ढूँढने निकल जाना साबित करता है कि हीरो बनने के लिए सिर्फ ताकत नहीं, बल्कि एक बहुत बड़ा दिल चाहिए।
अगर आपको डिटेक्टिव स्टाइल की स्टोरीज़, डार्क टोन का आर्टवर्क, और धमाकेदार सुपरहीरो एक्शन पसंद है, तो “भूखा डोगा” आपके लिए एक पूरी तरह से Must Read है। यह कॉमिक्स एक बार फिर दिखाती है कि भारतीय कॉमिक इंडस्ट्री में वो दम है जो किसी भी इंटरनेशनल कॉमिक्स को टक्कर दे सके—कहानी में भी और प्रेज़ेंटेशन में भी।
रेटिंग: ⭐⭐⭐⭐½ (4.5/5)
अंतिम विचार
इस कॉमिक्स को पढ़ने के बाद दिमाग में एक ही सवाल घूमता रहता है—
“आखिर वो असली गुनहगार कौन है?”
और यही सवाल आपको अगले भाग “सो जा डोगा” की तरफ खींच ले जाता है।
संजय गुप्ता और उनकी टीम ने सच में पाठकों को सीट से चिपकाए रखने वाला सस्पेंस क्रिएट किया है।
