राज कॉमिक्स ने भारतीय पाठकों को ऐसे नायक और कहानियाँ दीं जो पूरी तरह देसी, मौलिक और बेहद मनोरंजक थीं। जहाँ नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा और भेड़िया ने सुपरहीरो और एक्शन की दुनिया में अपनी खास पहचान बनाई, वहीं इसी प्रकाशन ने ‘तिलिस्म देव सीरीज’ जैसा एक अनोखा और शानदार प्रयोग किया। इस सीरीज में फंतासी, जादू-टोना, पुराने समय के साम्राज्य और दैवीय शक्तियों का ऐसा मेल देखने को मिलता है जो राज कॉमिक्स में पहले कम ही था। इसी खास सीरीज का एक बेहद असरदार और डरावना हिस्सा है—’जल्लाद राजकुमार’ (GENL-0269)।
32 पन्नों की यह कॉमिक्स लेखिका मीनू वाही, चित्रकार दिलीप कदम और जयप्रकाश जगताप, तथा संपादक मनीष चंद्र गुप्त की बेहतरीन टीम ने मिलकर बनाई थी। यह कॉमिक्स आज भी सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि उस दौर की रचनात्मकता और बेबाक कहानी कहने की झलक दिखाती हुई एक खिड़की जैसी लगती है। ‘जल्लाद राजकुमार’ नाम ही कहानी का पूरा भाव दर्शाता है—जिसमें बेरहमी, जादू और आख़िर में उभरती वीरता का जबरदस्त संगम है।
यह समीक्षा इस कॉमिक्स के कथानक, किरदारों, कला और उसके गहरे असर का विश्लेषण करने की कोशिश है। तो आइए, पन्ना-पन्ना खोलते हैं इस डरावने तिलिस्म की परतों को।
जुनून से नरसंहार तक
कहानी का खलनायक, डिब्रूगढ़ का राजकुमार दिग्विजय सिंह, एक अजीब और खतरनाक जुनून से घिरा हुआ है—एक भव्य किला पाने का जुनून। वह साफ़ कहता है, “वह किला दुनिया में कहीं भी हो, मैं उसे लेकर रहूँगा।” इस जुनून की वजह से वह मकरध्वज के शांत राजा अश्वप्रतापसिंह को एक धमकी भरा फरमान भेज देता है। खास बात यह है कि दिग्विजय इस किले पर अपने पुरखों का अधिकार बताता है, जिसे बाद में तिलिस्म देव भी मान लेते हैं। इससे कहानी सिर्फ अच्छे और बुरे की लड़ाई न रहकर, हक़ और ज़ुल्म के बीच की टक्कर बन जाती है।

राजा के इनकार के बाद दिग्विजय का असली ‘जल्लाद’ रूप सामने आता है। पहले वह उड़ने वाले घोड़े पर बैठकर आम लोगों का कत्लेआम करता है, और फिर अगले दिन एक विशाल पंखों वाले उड़ते सर्प पर सवार होकर सेना को भी खत्म कर देता है। कहानी में यह हमले लगातार बढ़ते डर का माहौल बनाते हैं, जहाँ सामान्य युद्ध कौशल जादू और तिलिस्म के आगे बेबस दिखता है।
विश्वासघात और आतंक की पराकाष्ठा
जब इंसानी कोशिशें नाकाम हो जाती हैं, तो राजकुमारी दिव्यप्रभा एक समझदारी भरा कदम उठाती है—ट्रोजन हॉर्स की तरह एक लकड़ी का घोड़ा शांति की भेंट के रूप में भेजना। लेकिन दिग्विजय की सोच ही कुछ और है। वह उस घोड़े को आग के हवाले कर देता है, राजा की आख़िरी उम्मीद भी राख कर देता है।
इसके बाद वह जो करता है, वही उसे ‘जल्लाद राजकुमार’ की उपाधि देता है। युद्ध में मरे सैनिकों की लाशों से वह किले के दरवाजे पर “लाशों की दीवार” खड़ी करवा देता है। यह दृश्य राज कॉमिक्स के इतिहास में सबसे ज़्यादा याद किए जाने वाले और डरावने पलों में से एक है। अंत में, वह एक जादुई “बर्फ का टीला” बनाकर पूरे राज्य को थाम देता है और राजकुमारी दिव्यप्रभा को उसी के अंदर कैद कर देता है।
तिलिस्म देव का न्याय और नायिका का प्रतिशोध
जब बहादुरी, चालाकी और हर मानवीय कोशिश बेकार हो जाती है, तब दैवीय शक्ति का हस्तक्षेप होता है। राजा अश्वप्रतापसिंह अपने कुलदेवता ‘तिलिस्म देव’ को पुकारते हैं। आमतौर पर तिलिस्म देव सिर्फ मार्गदर्शन करते हैं, लेकिन इस बार वह अन्याय खत्म करने के लिए खुद आगे आते हैं।

तिलिस्म देव कोई नया नायक नहीं भेजते, बल्कि कैद राजकुमारी दिव्यप्रभा को अपनी शक्तियों का एक हिस्सा दे देते हैं। यह मोड़ कहानी को पूरी तरह बदल देता है। दिव्यप्रभा अपनी कैद तोड़ने के बाद एक असाधारण योद्धा बन जाती है—“इस तूफान की गूंज”—और अकेले ही दिग्विजय की पूरी सेना से भिड़ जाती है। यह हिस्सा उसी भारतीय परंपरा को दर्शाता है जिसमें संकट के समय नारी शक्ति का रूप धारण करती है।
कहानी का अंतिम क्लाइमेक्स आसमान में होता है। दिव्यप्रभा तिलिस्म देव के उड़न-घोड़े पर, और दिग्विजय अपने उड़न-सर्प पर बैठकर जादुई महायुद्ध करते हैं। दिव्यप्रभा “हिमशिला” का प्रहार कर दिग्विजय को घायल कर देती है और आख़िरकार उसे तिलिस्म देव के हवाले कर देती है। तिलिस्म देव दिग्विजय का अंत कर देते हैं, और राज्य में फिर से शांति लौट आती है।
चरित्र–चित्रण: अच्छाई, बुराई और देवत्व
राजकुमार दिग्विजय (जल्लाद राजकुमार): वह कहानी का मुख्य खलनायक है—और क्या जबरदस्त खलनायक बनाया है! वह सिर्फ सीधा-सादा विलेन नहीं है। उसके पास एक वजह है (अपने पूर्वजों का किला वापस पाना), जो उसे थोड़ा सही भी ठहरा सकती थी, लेकिन जिस तरह से वह अपना मकसद पूरा करता है, वही उसे असली ‘जल्लाद’ बनाता है। वह बेरहम है, निर्दयी है, घमंडी है और जादुई शक्तियों से भी लैस है। उसका किरदार पढ़ने वाले के मन में डर और नफरत दोनों ही पैदा करता है—और यही उसकी सबसे बड़ी ताकत है।

राजकुमारी दिव्यप्रभा: वह इस कहानी की असली नायिका है। वह सिर्फ एक ‘Damsel in Distress’ यानी संकट में फँसी कमजोर राजकुमारी नहीं है। वह समझदार है, हिम्मती है—ट्रोजन हॉर्स जैसा प्लान भी उसी ने बनाया था। और जब उसे शक्ति मिलती है, तो वह खुद अपनी लड़ाई लड़ती है, खुद अपना बदला लेती है। 90 के दशक में किसी महिला किरदार को इतना महत्वपूर्ण रोल देना और उसे कहानी के अंतिम युद्ध का नायक बनाना, लेखिका मीनू वाही की आगे की सोच को दिखाता है।
राजा अश्वप्रतापसिंह: वह एक सीधे-सादे, नेक और शांतिप्रिय राजा हैं। अपनी प्रजा से प्यार करते हैं और उनके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। उनकी बेबसी और दुख कहानी में एक भावनात्मक गहराई लाता है, जिससे पाठक उनसे खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं।
तिलिस्म देव: यह पूरी सीरीज के guiding force यानी मार्गदर्शक जैसे हैं। वह एक तरह से ‘Deus Ex Machina’ हैं—ऐसा पात्र जो अचानक प्रकट होकर समाधान लाता है। हालांकि वह सीधे लड़ाई में नहीं कूदते, बल्कि नायकों को शक्ति देकर उन्हें खुद लड़ने का हौसला देते हैं। उनका चरित्र भारतीय पौराणिक कथाओं के उन ऋषियों और देवताओं की याद दिलाता है, जो धर्म और न्याय की रक्षा के लिए सही दिशा दिखाते हैं।
कला और चित्रांकन: दिलीप कदम का जादू
दिलीप कदम और जयप्रकाश जगताप की कला इस कहानी की असली जान है। यह काम राज कॉमिक्स के 90 के दशक की उस खास शैली को पूरे शानदार अंदाज़ में दिखाता है, जहाँ एक्शन पैनल्स “खच्चाक”, “धड़ाक” जैसे मजेदार और तेज़ ध्वनि-प्रभावों के साथ ज़िंदा हो उठते हैं। तलवारबाजी, लड़ाई और नरसंहार के दृश्यों को बिना किसी झिझक, पूरी तीव्रता के साथ दिखाया गया है—खासकर “लाशों की दीवार” वाली भयावहता तो कॉमिक्स में एक अलग ही असर छोड़ती है।
उड़न-घोड़े और खासतौर पर पंखों वाले उड़न-सर्प का शानदार डिजाइन दिग्विजय की डरावनी छवि को और गहरा बनाते हैं। पात्रों के चेहरों पर गुस्सा, डर, दुख और वीरता जैसी भावनाएँ बहुत साफ़ और प्रभावशाली तरीके से उकेरी गई हैं—दिग्विजय की क्रूर मुस्कान और राजा अश्वप्रताप की बेबसी को कलाकार ने बेहतरीन ढंग से पकड़ा है। लाल, नीले और हरे जैसे चमकीले रंग पूरी कहानी को एक मजबूत फंतासी माहौल देते हैं, जिसे देखकर वही पुराना कॉमिक्स वाला जादू फिर से महसूस होता है।
लेखन और संवाद: मीनू वाही की कलम का कमाल
मीनू वाही का लेखन इस कॉमिक्स की रीढ़ है। सबसे बड़ी बात यह है कि कहानी की रफ्तार एक सेकंड के लिए भी धीमी नहीं पड़ती। 32 पन्नों की कहानी होते हुए भी इसमें जुनून, चेतावनी, हमला, जवाबी चाल, विश्वासघात और आखिर का जादुई युद्ध, सबकुछ बहुत तेज़ और प्रभावी तरीके से होता है।

कहानी के छोटे, तेज़ और दमदार संवाद इसका रोमांच और बढ़ाते हैं—
“धमकियों से कायर डरा करते हैं,”
“अगर किला मुझे न मिला, तो मैं कल फिर आऊँगा,”
और
“बाहर निकल! आज तुझे मेरे हाथों से कोई नहीं बचा सकता!”
ऐसे संवाद कहानी को एकदम सिनेमाई एहसास देते हैं।
लेखिका ने हिंसा और क्रूरता दिखाने में कोई हिचक नहीं दिखाई—निर्दोष जनता का कत्ल, सैनिकों को जिंदा जलाना और लाशों की दीवार बनवाना… ये सब उस समय के हिसाब से काफी bold था। यही बातें कहानी को एक सच्ची ‘डार्क फैंटेसी’ का रूप देती हैं।
निष्कर्ष: एक क्लासिक जो आज भी प्रासंगिक है
‘जल्लाद राजकुमार’ राज कॉमिक्स के खजाने का एक ऐसा कोहिनूर है जो समय की धूल से थोड़ा ढका जरूर है, लेकिन उसकी चमक आज भी कम नहीं हुई है। यह कहानी सीधी और सरल है, लेकिन असर इतना गहरा छोड़ती है कि पढ़ने वाले को लंबे समय तक याद रहती है। यह हमें यह भी समझाती है कि मकसद कितना भी अच्छा हो, अगर उसे पाने का तरीका गलत है, तो इंसान नायक नहीं, बल्कि ‘जल्लाद’ बन जाता है।
इस कॉमिक्स में राजकुमारी दिव्यप्रभा एक मजबूत महिला किरदार के रूप में सामने आती है—जो अपने राज्य और अपनी इज़्ज़त की लड़ाई खुद लड़ती है। तिलिस्म देव का दैवीय हस्तक्षेप इस कहानी को एक खूबसूरत भारतीय फंतासी का रंग देता है, जैसा हमारे पौराणिक किस्सों में मिलता है।
कुल मिलाकर, ‘जल्लाद राजकुमार’ सिर्फ 32 पन्नों की पढ़ाई भर नहीं है, बल्कि 90 के दशक की उस रचनात्मक ऊर्जा और कल्पनाशक्ति की निशानी है जिसने भारतीय कॉमिक्स को उसकी अपनी पहचान दी। यह ऐसी कहानी है जिसे आप एक बार पढ़ते हैं और फिर आखिर तक छोड़ नहीं पाते। अगर आप राज कॉमिक्स के चाहने वाले हैं, या भारतीय फंतासी कहानियों में दिलचस्पी रखते हैं, तो यह कॉमिक्स आपके कलेक्शन में जरूर होनी चाहिए। यह सच में एक टाइमलेस क्लासिक है।
