यहाँ मनोज कॉमिक्स द्वारा प्रकाशित और तरुण कुमार द्वारा लिखित कॉमिक “कान और डॉ. फैट” की विस्तृत समीक्षा पेश है। इसमें हम न सिर्फ कहानी के मज़ेदार हिस्सों पर बात करेंगे, बल्कि इसके चित्रांकन, किरदारों और 90 के दशक की भारतीय कॉमिक्स की दुनिया को भी समझेंगे।
कॉमिक समीक्षा: कान और डॉ. फैट (मनोज कॉमिक्स), प्रकाशक: मनोज कॉमिक्स, लेखक: तरुण कुमार
चित्रांकन: नरेश कुमार, मुख्य पात्र: कान (Kaan), डॉ. फैट, नीरा, जैकी, इंस्पेक्टर रवि वर्मा
विषय (Genre): एक्शन, थ्रिलर, जासूसी, अपराध
उस समय राज कॉमिक्स अपने सुपरहीरो—जैसे नागराज और ध्रुव—के दम पर खूब चल रही थी, वहीं मनोज कॉमिक्स ने भी अपनी खास पहचान बनाई थी। मनोज कॉमिक्स की कहानियाँ आमतौर पर जासूसी, समाज में हो रहे अपराध और रहस्यमयी रोमांच पर आधारित होती थीं। इसी लाइन में ‘कान’ (Kaan) एक ऐसा हीरो है जो अपनी मार्शल आर्ट्स, तेज दिमाग और अलग अंदाज में अपराधियों से लड़ने के लिए जाना जाता है।
आज हम जिस कॉमिक की समीक्षा कर रहे हैं, वह है “कान और डॉ. फैट”। यह कॉमिक सिर्फ रोमांच ही नहीं देती, बल्कि उस समय की कला और लेखन की झलक भी दिखाती है। इसके कवर पर कान एक भारी-भरकम आदमी (डॉ. फैट) को उठाए दिखता है, जो देखने में ही इतना दमदार लगता है कि समझ आ जाता है — कहानी में असली भिड़ंत ताकत और दिमाग के बीच होने वाली है।
कथानक (Storyline)
कहानी की शुरुआत होती है एक बड़े ही दिलचस्प और रहस्यमय विज्ञापन से — “स्लिम प्लस।” यह एक ऐसा फिटनेस सेंटर है जिसका मालिक है — डॉ. फैट। वह दावा करता है कि वह किसी भी मोटे इंसान को सिर्फ 15 दिनों में पतला और फिट बना सकता है। शहर में उसके इस चमत्कार की खूब चर्चा है। लेकिन इस चमकदार दिखने वाली दुनिया के पीछे एक डरावना सच छुपा है। डॉ. फैट का असली धंधा लोगों को पतला बनाना नहीं, बल्कि उनके शरीर के अंगों (Organs) की तस्करी करना है।

कहानी में मोड़ तब आता है जब ‘नीरा’ नाम की एक लड़की, जो शायद कान की साथी या कोई जासूस है, इस सेंटर की असलियत जानने के लिए वेश बदलकर अंदर जाती है। वह अंदर जो देखती है, वह किसी को भी हिला दे — डॉ. फैट ऑपरेशन का बहाना बनाकर लोगों की किडनी और दूसरे अंग निकाल लेता है। एक बहुत ही झकझोर देने वाले सीन में नीरा एक फ्रिज में पानी की बोतल खोजते हुए एक डिब्बा पाती है, जिसमें इंसानी किडनी रखी होती है। यह दृश्य तुरंत समझा देता है कि डॉ. फैट कितना बेरहम और खतरनाक है।
उधर, कहानी में एक और ट्रैक चलता है। सूर्य नगर पुलिस की क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर रवि वर्मा एक बड़े स्मगलिंग गैंग का भंडाफोड़ करने के करीब होते हैं। उनके पास कुछ “ताश के पत्ते” (Playing Cards) होते हैं, जिनमें एक बड़े खजाने — यानी हीरों — का राज छुपा होता है। लेकिन उन पर हमला होता है और आखिरी समय में वह वे कार्ड्स ‘कान’ और उसके साथी ‘जैकी’ को सौंप देते हैं।
यहीं से कहानी दो हिस्सों में बंट जाती है —
एक तरफ कान को डॉ. फैट की गंदी दुनिया का सच पता करना है, और दूसरी तरफ उसे इंस्पेक्टर रवि वर्मा की छोड़ी हुई इस खतरनाक पहेली को भी सुलझाना है।
ताश के पत्तों का यह रहस्य कहानी को एक तरह की ‘ट्रेज़र हंट’ (Treasure Hunt) में बदल देता है। कान और जैकी सुरागों के पीछे-पीछे चलते हुए आखिरकार चिड़ियाघर पहुँचते हैं। यहाँ एक बेहद मज़ेदार और रोमांच से भरा एक्शन सीन है—उन्हें मगरमच्छ के पेट से हीरा निकालना होता है। बाद में यह पता चलता है कि वह मगरमच्छ असली नहीं बल्कि एक डमी था, लेकिन फिर भी उस सीन का मज़ा और थ्रिल बिल्कुल कम नहीं होता।
कहानी का चरमोत्कर्ष (Climax) तब आता है जब कान को पता चलता है कि इन सारी घटनाओं के पीछे असली दिमाग कोई और नहीं बल्कि डॉ. फैट ही है। इसके बाद कान और डॉ. फैट के बीच जोरदार लड़ाई होती है। डॉ. फैट अपनी ताकत और भारी शरीर का पूरा फायदा उठाता है, लेकिन कान अपनी मार्शल आर्ट्स, फुर्ती और तेज दिमाग से उसे मात दे देता है। आखिर में कान “स्लिम प्लस” की असली सच्चाई सबके सामने लाता है और डॉ. फैट को कानून के हवाले कर दिया जाता है।
चरित्र विश्लेषण (Character Analysis)
कान (Kaan):
कान मनोज कॉमिक्स का एक प्रमुख हीरो है। इस कॉमिक में भी वह निडर, समझदार और एक दमदार फाइटर के रूप में दिखाई देता है। उसकी पीली जैकेट, आंखों पर वाइज़र (Visor) या खास चश्मा और मॉडर्न हथियार—उसे और भी स्टाइलिश बनाते हैं। कहानी में यह भी दिखाया गया है कि कान सिर्फ लड़ाई में ही तेज नहीं है, वह एक शानदार जासूस भी है। जिस तरह से वह ताश के पत्तों के सुरागों को समझता है, उससे उसकी बुद्धिमानी साफ दिखती है। पेज 16 पर उसके बचपन की एक झलक दिखाई जाती है, जहाँ उसे प्रधानमंत्री से सम्मान मिलता है—यह सीन कान के किरदार में और भी गहराई जोड़ देता है।
डॉ. फैट (Dr. Fat):
कहानी का सबसे बड़ा विलेन, डॉ. फैट, एक क्लासिक कॉमिक खलनायक जैसा है—दिखने में भारी-भरकम, चालाक और बिल्कुल बेदर्द। उसका नाम ‘डॉ. फैट’ उसके काम (स्लिमिंग सेंटर) और उसके शरीर दोनों पर एक मज़ाक जैसा लगता है। वह पैसे के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। ऊपर से वह समाज सेवा का ढोंग करता है, लेकिन असल में वह बहुत ही गंदा काम—अंगों की तस्करी—कर रहा होता है। यह किरदार साफ दिखाता है कि कभी-कभी अच्छे दिखने वाले लोग भी अंदर से बेहद खतरनाक हो सकते हैं।
नीरा:
नीरा इस कॉमिक की सबसे मजबूत महिला किरदारों में से एक है। वह सिर्फ मदद का इंतज़ार करने वाली नायिका नहीं, बल्कि खुद खतरे में जाकर सच्चाई पता करती है। उसका स्लिमिंग सेंटर में वेश बदलकर जाना और सबूत इकट्ठा करने की कोशिश उसकी बहादुरी दिखाती है। हालांकि बाद में वह पकड़ी जाती है, जिससे कान को उसे बचाना पड़ता है—जो उस दौर की कॉमिक्स का एक आम ट्रोप (Trope) था।जैकी:
जैकी, कान का भरोसेमंद साथी, कहानी में एक्शन और टीमवर्क की अच्छी खुराक जोड़ता है। वह हमेशा कान के साथ खड़ा रहता है और कई ज़रूरी मौकों पर काम आता है। मगरमच्छ वाले सीन और बाकी लड़ाईयों में उसकी भूमिका काफी अहम है। उसकी और कान की दोस्ती कहानी को और मज़बूत बनाती है।
चित्रांकन और कला (Artwork and Illustrations)

नरेश कुमार का किया हुआ चित्रांकन एकदम 90 के दशक वाली क्लासिक फील देता है।
एक्शन दृश्य:
लड़ाई वाले सीन में गति (Motion), ताकत (Impact) और एक्शन को बहुत अच्छे से दिखाया गया है। खासकर पेज 7 और 14 के फाइट सीन्स काफी जीवंत लगते हैं। शरीर की बनावट (Anatomy) पर भी अच्छा काम किया गया है—कान की मसल्स और डॉ. फैट के भारी शरीर दोनों को खूबसूरती से दिखाया गया है।
रंग संयोजन:
कॉमिक में चमकीले रंगों का बढ़िया इस्तेमाल किया गया है। पीला, लाल और हरा रंग ज्यादा दिखते हैं, जो उस समय की प्रिंटिंग स्टाइल के हिसाब से एकदम फिट बैठते हैं।
पैनलिंग: पैनलों का लेआउट कहानी की गति को बनाए रखता है। कहीं-कहीं पैनलों को तोड़कर चित्र बाहर निकाले गए हैं (जैसे कवर पेज और एक्शन सीन्स), जो दृश्य को और अधिक प्रभावशाली बनाते हैं।
अभिव्यक्ति: पात्रों के चेहरों पर भावों को स्पष्ट रूप से उकेरा गया है। डॉ. फैट के चेहरे पर क्रूरता और नीरा के चेहरे पर डर के भाव बहुत ही सजीव हैं।
लेखन और संवाद (Writing and Dialogues)
तरुण कुमार का लेखन कसा हुआ है। कहानी कहीं भी बोर नहीं करती। संवाद उस दौर के हिसाब से फिल्मी और नाटकीय हैं, जो पाठकों को पसंद आते थे।
नाटकीयता: “कान! जो जुर्म को न सिर्फ देख सकता है… बल्कि उससे टकरा भी सकता है!” जैसे संवाद हीरो के करिश्मे को बढ़ाते हैं।
रहस्य: लेखक ने ताश के पत्तों के जरिए जो रहस्य बुना है, वह काबिले तारीफ है। पाठक भी पात्रों के साथ-साथ पहेली सुलझाने में लग जाते हैं।
सामाजिक संदेश: भले ही यह एक फिक्शन है, लेकिन लेखक ने “अंग तस्करी” और “फर्जी क्लिनिक” जैसे गंभीर मुद्दों को उठाया है। यह दिखाता है कि मनोज कॉमिक्स केवल मनोरंजन ही नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता का भी माध्यम थी।
समीक्षात्मक विश्लेषण (Critical Analysis)
सकारात्मक पक्ष:
तेज गति: कहानी बहुत तेजी से आगे बढ़ती है। एक पल भी ऐसा नहीं लगता कि कहानी खींच रही है।
सस्पेंस: इंस्पेक्टर रवि वर्मा की मौत और ताश के पत्तों का रहस्य पाठकों को अंत तक बांधे रखता है।
संतुलन: कहानी में एक्शन, ड्रामा और सस्पेंस का अच्छा संतुलन है।
खलनायक: डॉ. फैट एक यादगार विलेन है। उसका व्यक्तित्व और उसके अपराध करने का तरीका उसे डरावना बनाता है।
कमजोर पक्ष:
तर्क की कमी: कुछ जगहों पर कहानी में सिनेमाई छूट (Cinematic Liberty) ली गई है। जैसे, चिड़ियाघर में मगरमच्छ के बाड़े में इतनी आसानी से घुस जाना और वहां डमी मगरमच्छ का होना थोड़ा अविश्वसनीय लगता है।

पूर्वानुमानित अंत: जैसे ही डॉ. फैट का परिचय होता है, पाठक अंदाजा लगा सकते हैं कि अंत में उसकी हार होगी। क्लाइमेक्स थोड़ा और चौंकाने वाला हो सकता था।
नीरा की भूमिका: हालांकि नीरा की शुरुआत बहुत दमदार थी, लेकिन अंत में उसे एक “बचाए जाने वाले पात्र” (Damsel in Distress) के रूप में ही सीमित कर दिया गया। उसे क्लाइमेक्स फाइट में और अधिक सक्रिय दिखाया जा सकता था।
निष्कर्ष (Conclusion)
“कान और डॉ. फैट” मनोज कॉमिक्स की एक उत्कृष्ट प्रस्तुति है। यह उन पाठकों के लिए एक बेहतरीन तोहफा है जो पुरानी हिंदी कॉमिक्स के शौकीन हैं। यह कॉमिक हमें उस दौर की याद दिलाती है जब कहानियाँ सीधी और सरल होती थीं, लेकिन उनमें रोमांच की कोई कमी नहीं होती थी।
कान का चरित्र एक आदर्श भारतीय सुपरहीरो का प्रतिनिधित्व करता है—जो ताकतवर है, बुद्धिमान है और नैतिकता के रास्ते पर चलता है। डॉ. फैट के रूप में एक अनोखा विलेन कहानी को रोचक बनाता है।
इसमें जासूसी है, मार-धाड़ है और एक सामाजिक संदेश भी है। यदि आप भारतीय कॉमिक्स के इतिहास को समझना चाहते हैं या बस एक अच्छी पुरानी एक्शन स्टोरी का आनंद लेना चाहते हैं, तो “कान और डॉ. फैट” निश्चित रूप से पढ़ने योग्य है। इसका आर्टवर्क, कहानी की बुनावट और पात्रों का विकास इसे एक ‘क्लासिक’ का दर्जा दिलाते हैं।
अंत में, यह कहा जा सकता है कि मनोज कॉमिक्स ने ‘कान’ के माध्यम से पाठकों को एक ऐसा नायक दिया था जो न केवल शारीरिक रूप से मजबूत था, बल्कि जिसका दिमाग भी उतना ही तेज था। “डॉ. फैट” जैसी कहानियाँ ही थीं जिन्होंने भारतीय युवाओं के बीच कॉमिक्स पढ़ने की आदत को बढ़ावा दिया और एक पूरी पीढ़ी के बचपन को यादगार बनाया।
