भारतीय कॉमिक्स इंडस्ट्री में ‘मनोज कॉमिक्स’ ने एक्शन और जासूसी वाली कहानियों में अपनी अलग पहचान बनाई थी। जहाँ दूसरी कंपनियाँ सुपरपावर वाले हीरोज पर ज़ोर दे रही थीं, वहीं मनोज कॉमिक्स ने ऐसे किरदार सामने लाए जो बिना किसी सुपरपावर के, अपनी समझदारी और ताकत के दम पर अपराधियों को सबक सिखाते थे। ‘कान’ (Kaan) भी इसी लाइन का एक बेहद पसंद किया जाने वाला हीरो है।
“कान का कानून” सिर्फ एक सीधी-सादी मारधाड़ वाली कहानी नहीं है। इसमें उस समय की सामाजिक परेशानियाँ, कंपनियों का लालच और अपराध जगत की बेरहमी साफ झलकती है। इसका कवर पेज ही इतना दमदार है कि कोई भी कॉमिक प्रेमी इसे देखकर रुक जाए—कान एक बदमाश को हवा में उछालते हुए दिखता है, जो उसके अंदाज़ और उसके ‘कान के कानून’ को साफ दिखाता है।
कथानक (The Plot)
कहानी की शुरुआत शहर सूर्यनगर में फैले ‘डेंगू’ के डरावने माहौल से होती है। अस्पताल ओवरलोड हैं, लोग परेशान हैं, और हर तरफ तनाव फैला हुआ है। इसी बीच एक कंपनी—‘लॉयड फार्मास्यूटिकल्स’—एक मसीहा की तरह सामने आती है। उनकी दवाई डेंगू के इलाज में चमत्कार कर रही है और कंपनी खूब पैसा कमा रही है। लेकिन लेखक हनीफ अजहर ने शुरुआत में ही इशारा दे दिया है कि इस कंपनी की तरक्की के पीछे कुछ गड़बड़ ज़रूर है।
दूसरी तरफ, शहर में एक और समस्या बढ़ रही है—कॉलेज की लड़कियों का दिनदहाड़े अपहरण। इसी दौरान कहानी में आते हैं ‘आकाश’ और ‘छवि’। दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं। छवि एक बहादुर पत्रकार की बेटी है, जो शहर में बढ़ते अपराध के खिलाफ लगातार आवाज उठा रहा है।
कहानी में असली मोड़ तब आता है जब अपहरणकर्ता आकाश और छवि को घेर लेते हैं। यहाँ लगता है कि शायद आकाश बस एक आम कॉलेज लड़का है और तुरंत हार मान लेगा। लेकिन कहानी पलट जाती है। पता चलता है कि आकाश एक ट्रेनिंग पाया हुआ फाइटर है और वह अपहरणकर्ताओं को अच्छी तरह टक्कर देता है।

उधर, ‘कान’ अपनी पुरानी डायरी के नोट्स देख रहा होता है और उसे समझ आता है कि शहर में फैल रहा डेंगू और लड़कियों का लगातार गायब होना—ये दोनों बातें अलग-अलग नहीं हैं। इनके पीछे एक बड़ा और खतरनाक प्लान चल रहा है।
रोमांच तब बढ़ जाता है जब आकाश और छवि को एक गोदाम में कैद कर दिया जाता है। यहाँ आकाश अपने दिमाग का इस्तेमाल करते हुए ‘ब्लो-पाइप’ (फूकनी) से अपहरणकर्ताओं को बेहोश कर देता है। दूसरी तरफ कान, एक-एक सुराग जोड़ते हुए आखिरकार विलेन के ठिकाने तक पहुँच ही जाता है।
अंत में खुलासा होता है कि लॉयड फार्मास्यूटिकल्स ही असली गुनहगार है। वही लोग जानबूझकर डेंगू फैलाते थे ताकि उनकी दवाइयाँ ज़्यादा बिकें। और यही गैंग लड़कियों का अपहरण भी कर रहा था। आख़िर में कान और आकाश मिलकर इस पूरे गिरोह को खत्म कर देते हैं।
चरित्र विश्लेषण (Character Analysis)
कान (Kaan):
इस कॉमिक में कान केवल मार-धाड़ करने वाला हीरो नहीं है, बल्कि एक तेज दिमाग वाला जासूस भी है। पेज 16 पर दिखाया गया फ्लैशबैक उसके किरदार को और मज़बूत बनाता है। बचपन में उसे प्रधानमंत्री (जो इंदिरा गांधी जैसी लगती हैं) से “मास्टर ऑफ द ईयर” का अवॉर्ड मिलता है। ये दिखाता है कि कान की प्रतिभा यूँ ही नहीं है—इसके पीछे उसकी मेहनत, उसकी ट्रेनिंग और उसके पिता ‘बलवंत ठक्कर’ की सीख है।

कान का स्वभाव शांत लेकिन बेहद खतरनाक है। अपराधियों के लिए वह बिल्कुल रहम नहीं दिखाता। और यही इस टाइटल “कान का कानून” का मतलब भी बनता है—जहाँ सरकारी कानून देर लगा दे, वहाँ कान का कानून तुरंत अपना फैसला सुना देता है।
आकाश:
इस कहानी का सबसे बड़ा सरप्राइज आकाश है। शुरुआत में वह एक सीधा-सादा, अपने प्यार में खोया हुआ लड़का लगता है, लेकिन जैसे-जैसे कहानी बढ़ती है, उसका ‘एक्शन वाला रूप’ सामने आता है। वह किसी सुपरहीरो से कम नहीं दिखता। जिस तरह वह पाइप से जहरीले या बेहोश करने वाले तीर चलाता है, वह उसे बाकी किरदारों से काफी अलग बना देता है। वह कान का साथी भर नहीं है, बल्कि पूरी कहानी में एक दूसरे हीरो की तरह खड़ा दिखाई देता है—यानी एक Parallel Hero।
छवि:
छवि का किरदार बिल्कुल 90 के दशक की कॉमिक्स वाली हीरोइनों जैसा है—खूबसूरत, थोड़ी घबराने वाली, लेकिन वक्त आने पर अपने प्यार के साथ खड़ी रहने वाली। हालांकि कहानी में वह ज़्यादातर समय ‘डैमसेल इन डिस्ट्रेस’ यानी मुसीबत में फंसी लड़की के रोल में रहती है, जिसे बचाने की जिम्मेदारी आकाश और कान दोनों पर होती है।
खलनायक (लॉयड फार्मा और गुंडे):
इस कहानी का असली विलेन कोई एक आदमी नहीं, बल्कि एक बड़ी कॉर्पोरेट कंपनी है, जो कहानी को और भी असली और आज के समय जैसा महसूस कराती है। ‘लोहा’ नाम का गुंडा, जिससे कान की सीधी भिड़ंत होती है, पूरी तरह शारीरिक ताकत का प्रतीक है। यहाँ के विलेन सिर्फ डरावने चेहरे वाले अपराधी नहीं हैं, बल्कि ऐसे सफेदपोश लोग हैं जो समाज को अंदर ही अंदर जहर दे रहे हैं।
लेखन और संवाद (Writing and Dialogues)
हनीफ अजहर की लेखनी तेज, कसावदार और बिलकुल बिना समय बर्बाद किए आगे बढ़ने वाली है। कहानी कहीं भी ढीली नहीं पड़ती। हर पन्ने पर कुछ नया होता रहता है। संवादों में भी उस दौर की फिल्मों वाला मज़ा है।

नाटकीयता: “जुर्म और कानून एक-दूसरे का पीछा करते रहते हैं…” जैसी लाइनें कहानी की शुरुआत को खास और थोड़ा भारी अंदाज़ देती हैं।
सामाजिक कटाक्ष: लेखक ने स्वास्थ्य सेवाओं के बिज़नेस बनने पर जोरदार तंज किया है। “जिसकी बदौलत लोगों को स्वास्थ्य लाभ और कम्पनी को लाखों रुपयों का मुनाफा हो रहा था”—ये बात आज भी पूरी तरह फिट बैठती है। “कान का कानून” एकदम सही टाइटल है। इससे साफ पता चलता है कि कान अदालतों की धीमी प्रक्रिया पर भरोसा नहीं करता—वह मौके पर ही फैसला सुना देता है।
चित्रांकन और कला (Artwork and Illustrations)
नरेश कुमार की ड्राइंग मनोज कॉमिक्स की पहचान वाली स्टाइल को बिल्कुल सही ढंग से पेश करती है।
एक्शन सीक्वेंस: कॉमिक में लड़ाई वाले सीन बहुत तेज और दमदार हैं। खासकर पेज 13 और 14 पर कान की एंट्री और उसकी फाइट में गति (motion) का इस्तेमाल बहुत शानदार है। हवा में उछलना, किक मारना और दुश्मनों का गिरना—सब कुछ काफी जीवंत लगता है।
शारीरिक रचना (Anatomy): हीरोज की मस्कुलर बॉडी और खलनायकों के चेहरे के एक्सप्रेशन पर अच्छी मेहनत की गई है। कान की पीली जैकेट और वाइज़र उसकी पूरी लुक को और स्टाइलिश बना देते हैं।
रंग संयोजन: कॉमिक में रंगों का इस्तेमाल 90 के दशक की तकनीक के हिसाब से काफी चमकीला और ध्यान खींचने वाला है। कई बैकग्राउंड में सॉलिड रंगों का इस्तेमाल हुआ है, जिससे एक्शन पर ज्यादा फोकस रहता है।
पैनलिंग: कहानी को दिखाने के लिए पैनल काफी स्मूद तरीके से एक से दूसरे में जाते हैं। फ्लैशबैक को अलग स्टाइल में नहीं बनाया गया, लेकिन नरेशन बॉक्स की वजह से सब आसानी से समझ में आ जाता है।
विषयगत विश्लेषण (Thematic Analysis)
यह कॉमिक एक बेहद गंभीर बात उठाती है—बीमारी को भी बिज़नेस बना देना। लॉयड फार्मास्यूटिकल्स द्वारा डेंगू फैलाना इस बात की ओर इशारा करता है कि मुनाफा कमाने के लिए नैतिकता को कैसे ताक पर रख दिया जाता है

आकाश के जरिए लेखक यह दिखाता है कि बुराई से लड़ने के लिए हमेशा सुपरहीरो (कान) ही जरूरी नहीं होता। अगर कोई आम युवा हिम्मत कर ले, तो वह भी सिस्टम की गलतियों से लड़ सकता है और फर्क ला सकता है। कान के बचपन से जुड़ा हिस्सा यह बताता है कि मार्शल आर्ट्स सिर्फ लड़ाई-झगड़े के लिए नहीं, बल्कि खुद की सुरक्षा और दूसरों की मदद करने के लिए भी सीखना चाहिए। यह एक जरूरी कौशल है, खासकर आज के समय में।
समीक्षात्मक दृष्टिकोण (Critical View)
सकारात्मक पक्ष:
कहानी इतनी तेज चलती है कि पाठक को सोचने का मौका ही नहीं मिलता—और यही एक थ्रिलर की असली ताकत होती है।
आकाश की असली पहचान और उसकी क्षमताओं को धीरे-धीरे सामने लाना कहानी में रोमांच बनाए रखता है।
यह कॉमिक पूरी तरह एक्शन से भरी हुई है। मार्शल आर्ट्स, गन फाइट, धमाके—एक्शन पसंद करने वालों के लिए यह किसी दावत से कम नहीं।

नकारात्मक पक्ष:
कुछ जगह कहानी फिल्मी दुनिया जैसी लगती है। जैसे, आकाश का सिर्फ एक पाइप से इतना सटीक निशाना लगाना कि वह मशीनगन से लैस दुश्मनों तक को हरा दे—यह थोड़ा अविश्वसनीय लगता है। कॉमिक में हिंसा की मात्रा थोड़ी ज्यादा है। मार-धाड़ और खून-खराबा काफी ग्राफिक तरीके से दिखाया गया है, जो कुछ पाठकों को ज्यादा लगता है। हमेशा की तरह पुलिस (इंस्पेक्टर आलपिन) आखिर में तब पहुँचती है जब हीरो पहले ही सबकुछ खत्म कर चुका होता है। यह फॉर्मूला कई कहानियों में दोहराया जाता रहा है।
निष्कर्ष (Conclusion)
“कान का कानून” 90 के दशक की भारतीय कॉमिक्स का शानदार उदाहरण है। यह वह समय था जब कहानियों में तर्क से ज्यादा मज़ा, मनोरंजन और हीरो की बहादुरी को अहमियत दी जाती थी। हनीफ अजहर की कहानी और नरेश कुमार की कला मिलकर एक ऐसा अनुभव बनाती है जो पाठक को अंत तक बांधे रखता है।
अगर आप पहले से मनोज कॉमिक्स पढ़ते रहे हैं, तो यह कहानी आपको पुरानी यादों की दुनिया में ले जाएगी। और अगर आप नए पाठक हैं, तो यह आपको उस दौर के “एंग्री यंग मैन” स्टाइल सुपरहीरो से मिलवाती है—जो सिस्टम के बाहर रहकर भी न्याय करता था और डर बनाने में देर नहीं लगाता था।
कुल मिलाकर, यह एक “मस्ट रीड” कॉमिक है, खासकर उनके लिए जो पुरानी भारतीय एक्शन कॉमिक्स का मज़ा लेना चाहते हैं। इसमें वही सब कुछ है जो एक मसालेदार ब्लॉकबस्टर में होना चाहिए—हीरो, विलेन, साजिश, लड़ाई और जीत।
रेटिंग: 4/5
