बांकेलाल की कहानियाँ हमेशा पाठकों को हँसी के समंदर में डुबो देती हैं। उसका सपना हमेशा एक ही रहता है—किसी भी तरह ‘विशालगढ़ का राजा बनना’। इसी सपने को पूरा करने के लिए वह हर बार कोई न कोई नई, टेढ़ी-मेढ़ी और चालाक योजना बनाता है। “शोक वाटिका” भी इसी कड़ी की एक शानदार कहानी है, जहाँ बांकेलाल की किस्मत उसे बार-बार मुश्किलों में तो डालती ही है, साथ ही उसे ऐसी अजीब हालत में पहुँचा देती है कि वह राक्षसों का राजा तक बन जाता है।
तरुण कुमार वाही की मजेदार लेखनी और बेदी जी के बेहतरीन चित्र इस कहानी को और भी दिलचस्प बना देते हैं। राक्षसों की दुनिया, अजीब-से पेड़-पौधे और बांकेलाल की फिसलती हुई चालाकी—सब मिलकर एक ऐसा माहौल बनाते हैं जिसे पढ़ते समय हँसी अपने आप निकल जाती है।
राज कॉमिक्स का यह किरदार इसलिए अलग है क्योंकि यह कोई आदर्श ‘हीरो’ नहीं, बल्कि एक शरारती, चालाक और कई बार खुद का फायदा देखने वाला इंसान है। उसे भगवान शिव का ऐसा वरदान (या कहें श्राप) मिला है कि जब भी वह किसी का बुरा करने की सोचता है, तो जाने-अनजाने उससे भला ही हो जाता है।
कथानक और पटकथा (Plot and Script)
“शोक वाटिका” की शुरुआत ही जोरदार व्यंग्य और हल्के-फुल्के हास्य के साथ होती है। कहानी इंसानों और राक्षसों के बीच के टकराव पर आधारित है, जिसे लेखक ने बड़े मजेदार अंदाज में दिखाया है।

शुरुआत में दिखाया जाता है कि राजा विक्रम सिंह राक्षसों के राजा दंतकेतु को शांति का प्रस्ताव भेजते हैं। यहाँ लेखक का हास्य अपने पूरे रंग में नजर आता है। राक्षस इस प्रस्ताव को इसलिए मान लेते हैं क्योंकि उन्हें इंसानों द्वारा आँखों में “संतरे के छिलकों का रस” निचोड़े जाने का डर सताता है। यह एक मासूम-सा डर है, जो खतरनाक राक्षसों को भी मजबूर कर देता है और पाठकों के चेहरे पर तुरंत मुस्कान ले आता है।
कहानी में असली गड़बड़ तब शुरू होती है जब राक्षसराज दंतकेतु विशालगढ़ पहुँचते हैं। यहाँ पूरी तरह “कॉमेडी ऑफ एरर्स” वाला माहौल बन जाता है। शर्त यह थी कि राक्षस इंसानों के भेष में आएँगे और इंसान राक्षसों के। दंतकेतु चालाकी से स्त्री का वेश धारण कर लेते हैं ताकि इंसानों की चालें समझ सकें। लेकिन राजा विक्रम सिंह को लगता है कि दंतकेतु ने अपनी पत्नी को भेज दिया है। इसी गलतफहमी में सेनापति उस ‘रानी’ बनी दंतकेतु की चुटिया काट देता है। यही घटना पूरी कहानी की नींव बन जाती है।
अपनी चुटिया कटने से दंतकेतु बुरी तरह अपमानित हो जाता है। वह तुरंत अपने असली रूप में आता है और धुएँ के गुबार के साथ विशालगढ़ की महारानी, यानी विक्रम सिंह की पत्नी, का अपहरण करके ले जाता है। यहीं से कहानी में बांकेलाल की एंट्री होती है। राजा विक्रम सिंह बांकेलाल को साफ धमकी देते हैं कि अगर वह तीन दिन में रानी को वापस नहीं लाया, तो उसी कटी हुई चुटिया से उसे फाँसी दे दी जाएगी। डरपोक और आराम पसंद बांकेलाल मजबूरी में इस मिशन पर निकल पड़ता है। यही बांकेलाल की कहानियों का असली मजा है—उसे जबरन हीरो बना दिया जाता है।
बांकेलाल की यात्रा ‘गोलम नदी’ से शुरू होती है, जिसका बहाव बहुत तेज है। रास्ते में उसे कई अजीब मुश्किलों और विचित्र जीवों का सामना करना पड़ता है। नदी में गिरना, तलवार का खो जाना और फिर निहत्थे राक्षसों के बीच पहुँच जाना कहानी में अच्छा सस्पेंस पैदा करता है।

राक्षस लोक पहुँचकर बांकेलाल को पता चलता है कि रानी को ‘शोक वाटिका’ में रखा गया है। वहाँ उसे तरह-तरह के अजीब राक्षस मिलते हैं, जैसे ‘किकिन्टू’ जो आधा घोड़ा और आधा राक्षस है, और कई दूसरे मायावी जीव। बांकेलाल अपनी अक्ल से कम और किस्मत के सहारे ज्यादा, इन सबको चकमा दे देता है। एक जगह वह किसी अदृश्य दुश्मन से लड़ने का नाटक करता है, जिसे देखकर बाकी राक्षस खुद ही डर जाते हैं।
कहानी का अंत भी उतना ही नाटकीय है। बांकेलाल न सिर्फ रानी को बचा लेता है, बल्कि दंतकेतु को भी अपनी ही चालों में फंसा देता है। शुरुआत में दिखाया गया संतरे के रस का डर अंत में भी अहम भूमिका निभाता है, या यूँ कहें कि उसी डर का दिमागी फायदा उठाया जाता है। आखिरकार बांकेलाल रानी को सुरक्षित विशालगढ़ वापस ले आता है।
पात्र विश्लेषण (Character Analysis)
बांकेलाल: इस कॉमिक में बांकेलाल बिल्कुल अपने जाने-पहचाने रूप में नजर आता है। वह कोई बहादुर योद्धा नहीं है, बल्कि हालात का मारा हुआ इंसान है। जब उसे जबरन नाव में बैठाकर भेजा जाता है, तो वह रोता है, डरता है और गिड़गिड़ाता भी है। उसकी असली ताकत उसकी तलवार या बहादुरी नहीं, बल्कि उसकी किस्मत और उसकी चालाकी है। जैसे एक जगह दो राक्षस उसे मारने के लिए आपस में ही लड़ पड़ते हैं। बांकेलाल वहाँ कुछ खास नहीं करता, बस चुपचाप दुबककर अपनी जान बचाने की कोशिश करता है, लेकिन आखिर में जीत उसी की हो जाती है। उसका यही डरपोक और आम इंसान जैसा स्वभाव उसे पाठकों के और भी करीब ले आता है, क्योंकि वह बहुत “रिलेटेबल” लगता है।
राजा विक्रम सिंह: विशालगढ़ के राजा को हमेशा की तरह यहाँ भी एक भोले और भावुक शासक के रूप में दिखाया गया है। अपनी पत्नी के प्रति उनका प्रेम इतना ज्यादा दिखाया गया है कि वे एक “चुटिया” से फांसी लगाने तक को तैयार हो जाते हैं। यह दरअसल उनके चरित्र का व्यंग्यात्मक चित्रण है। वे बांकेलाल पर आँख बंद करके भरोसा करते हैं, जबकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि बांकेलाल अक्सर मन से नहीं, मजबूरी में काम करता है।

राक्षसराज दंतकेतु: दंतकेतु एक ताकतवर लेकिन दिमाग से कमजोर खलनायक है। उसका स्त्री वेश धारण करना और फिर अपनी ही चुटिया कटवा बैठना उसकी मूर्खता को साफ दिखाता है। उसके पास अपार शक्ति है, वह काले जादू का भी जानकार है, फिर भी बांकेलाल जैसी साधारण चालों के सामने वह बेबस नजर आता है। राज कॉमिक्स के खलनायकों की यही खास बात रही है कि वे डरावने होने के साथ-साथ हास्यास्पद भी लगते हैं।
सेनापति: सेनापति का रोल यहाँ मुख्य रूप से कॉमिक रिलीफ और कहानी को आगे बढ़ाने वाले किरदार का है। उसकी यह सलाह कि “रानी की चुटिया काट दो”, पूरी कहानी की सबसे बड़ी मुसीबत की वजह बनती है। इससे यह भी दिखाया गया है कि राजा के सलाहकार कितने समझदार हैं—यह बात पूरी तरह व्यंग्य में कही गई है।
हास्य और व्यंग्य (Humor and Satire)
“शोक वाटिका” की सबसे बड़ी ताकत इसका हास्य है। लेखक तरुण कुमार वाही ने शब्दों और हालात दोनों का ऐसा इस्तेमाल किया है कि हँसी लगातार बनी रहती है। संवादों में हास्य की झलक साफ दिखती है, जैसे राक्षसों का यह कहना कि वे इंसानों की आँखों में संतरे का रस निचोड़ देंगे—यह सुनने में मासूम लगता है, लेकिन असरदार धमकी बन जाता है। वहीं राजा का यह कहना कि राक्षस बांकेलाल को खाकर डकार भी नहीं मारेंगे क्योंकि उससे उनका पेट नहीं भरेगा, डार्क ह्यूमर का बढ़िया उदाहरण है।
बेदी जी का चित्रांकन दृश्य हास्य को और मजेदार बना देता है। दंतकेतु का भारी-भरकम शरीर के साथ स्त्री वेश में दिखना और नजाकत दिखाने की कोशिश करना, या मुश्किल में फँसे बांकेलाल के डर से भरे चेहरे—ये सब दृश्य अपने आप हँसी निकाल लेते हैं। परिस्थितिजन्य हास्य भी खूब है, जैसे राजा का पत्नी के अपहरण पर रोना, लेकिन आत्महत्या के लिए “चुटिया” जैसे छोटे जानवर का चुनाव करना, या राक्षसों का एक दुबले-पतले इंसान को महाशक्तिशाली योद्धा समझकर डर जाना, जबकि बांकेलाल तो बस भागने का रास्ता ढूँढ रहा होता है। यही बातें पूरी कहानी को बेहद हास्यास्पद और मजेदार बना देती हैं।
चित्रांकन (Artwork)
बेदी जी का आर्टवर्क राज कॉमिक्स, खासकर बांकेलाल सीरीज़ की पहचान रहा है, और “शोक वाटिका” में भी उनका काम उतना ही शानदार है। पात्रों की बनावट में बांकेलाल की लंबी नाक, खास दाँत और मूँछें उसे अलग पहचान देती हैं। राक्षसों का चित्रण डरावना होने के साथ-साथ थोड़ा कार्टून जैसा भी है, जो कहानी के हल्के-फुल्के मूड से पूरी तरह मेल खाता है। खास तौर पर दंतकेतु का डिज़ाइन, उसके बड़े सींग और विशाल शरीर, काफी प्रभावशाली लगते हैं।
पृष्ठभूमि का काम भी बहुत बढ़िया है। राक्षस लोक के अजीब पेड़-पौधे और “शोक वाटिका” के दृश्य विस्तार से बनाए गए हैं। गोलम नदी के दृश्यों में पानी के तेज बहाव और गति को रेखाओं के जरिए अच्छी तरह दिखाया गया है। रंग संयोजन भी आकर्षक है—राक्षसों के लिए गहरे रंग जैसे बैंगनी और गहरा नीला, और इंसानों के लिए सामान्य रंगों का इस्तेमाल, जिससे दोनों दुनियाओं का फर्क साफ नजर आता है।
समीक्षात्मक विश्लेषण (Critical Analysis)
सकारात्मक पक्ष:
कहानी की रफ्तार तेज है, इसलिए यह कॉमिक कहीं भी उबाऊ नहीं लगती। विशालगढ़ से राक्षस लोक और फिर वापस विशालगढ़ तक की यात्रा तेजी से आगे बढ़ती है। इस कॉमिक का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट इसका मनोरंजन है। यह बिना किसी भारी संदेश के सिर्फ मजा देने का काम करती है, बस हल्के-से अंदाज में यह बताती है कि मुसीबत में दिमाग चलाना जरूरी होता है। इसके साथ ही यह कॉमिक नॉस्टेल्जिया का भी बड़ा जरिया है, खासकर 90 के दशक के पाठकों के लिए, क्योंकि इसमें उस दौर की कॉमिक्स की सादगी, मासूमियत और आकर्षण पूरी तरह महसूस होता है।

कमजोर कड़ियाँ:
फैंटेसी कॉमिक होने की वजह से इसमें बहुत ज्यादा तर्क की उम्मीद वैसे भी नहीं की जाती, लेकिन कुछ जगहों पर घटनाएँ जरूरत से ज्यादा आसानी से हो जाती हैं। इससे तर्क की कमी थोड़ी खलती है। जैसे, बांकेलाल का बिना किसी हथियार के इतने सारे राक्षसों के बीच से सुरक्षित निकल जाना पूरी तरह उसकी “किस्मत” पर छोड़ दिया गया है। इसी तरह, श्रृंखला का हिस्सा होने के कारण राजा विक्रम सिंह को यहाँ भी हमेशा की तरह जरूरत से ज्यादा मूर्ख दिखाया गया है। यह भले ही बांकेलाल कॉमिक्स की पहचान हो, लेकिन बार-बार ऐसा देखने पर यह थोड़ा दोहराव भरा (Repetitive) लग सकता है।
कहानी के विशिष्ट प्रसंग (Highlight Moments)

कहानी में कई ऐसे दृश्य हैं जो लंबे समय तक याद रहते हैं। चुटिया काटने वाला दृश्य पूरी कॉमिक का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट है, जहाँ सेनापति की बेवकूफी और दंतकेतु का गुस्सा दोनों ही शानदार तरीके से दिखाए गए हैं। रानी के वेश में दंतकेतु का “गुर्रर्र” करना और उसे देखकर राजा का डर जाना बेहद मजेदार लगता है।
एक और रोचक सीन तब आता है जब बांकेलाल जंगल में किसी अदृश्य शत्रु के भ्रम में फँस जाता है। वह जाने-अनजाने ऐसी हरकतें करता है कि राक्षस खुद ही डरकर भ्रमित हो जाते हैं। कहानी का अंत भी हल्के-फुल्के अंदाज में होता है। आखिर में “पुच्ची” वाला दृश्य बांकेलाल के चरित्र का ट्रेडमार्क बन चुका है। जब बांकेलाल कामयाब होकर लौटता है, तो राजा उसे गले लगाकर “पुच्ची” देते हैं और बांकेलाल का इससे चिढ़ना अपने आप हँसी पैदा कर देता है।
निष्कर्ष (Conclusion)
“शोक वाटिका” बांकेलाल श्रृंखला की एक बेहतरीन कॉमिक है। यह उन पाठकों के लिए किसी दावत से कम नहीं है, जो मजेदार कहानी, शानदार चित्रांकन और खुलकर हँसाने वाले हास्य की तलाश में रहते हैं। लेखक और चित्रकार की जोड़ी ने एक साधारण-सी अपहरण की कहानी को एक यादगार और रोमांचक सफर में बदल दिया है।
यह कॉमिक हमें फिर से याद दिलाती है कि आखिर क्यों राज कॉमिक्स कभी भारत के हर घर का हिस्सा हुआ करती थी। इसमें भारतीय माहौल, हमारी अपनी तरह का हास्य और नैतिकता का अनोखा मेल देखने को मिलता है। बांकेलाल यह सिखाता है कि भले ही आप ताकत में सबसे आगे न हों, लेकिन अगर आपके पास दिमाग है और थोड़ी-सी किस्मत साथ दे दे, तो आप बड़े से बड़े राक्षस या समस्या को भी मात दे सकते हैं—चाहे वह समस्या “संतरे के रस” जितनी खट्टी ही क्यों न हो।
रेटिंग: 4/5
सिफारिश: यह कॉमिक हर उम्र के पाठकों के लिए पढ़ने लायक है, खासकर उनके लिए जो हिंदी व्यंग्य और कॉमिक्स आर्ट के शौकीन हैं। अगर आपने इसे अभी तक नहीं पढ़ा है, तो समझ लीजिए आप बांकेलाल के एक शानदार कारनामे को मिस कर रहे हैं।
